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________________ भगवती सूत्र श. १८ : उ. १० : सू. १९७-२०५ १९७. भंते! द्वि-प्रदेशी स्कंध वायुकाय से स्पृष्ट होता है? अथवा वायुकाय द्वि-प्रदेशी स्कंध से स्पृष्ट होता है? पूर्ववत्। इसी प्रकार यावत् असंख्येय-प्रदेशी स्कंध की वक्तव्यता। १९८. भंते! अनंत-प्रदेशी स्कंध वायुकाय से स्पृष्ट होता है-पृच्छा। गौतम! अनंत-प्रदेशी स्कंध वायुकाय से स्पृष्ट होता है। वायुकाय अनंत-प्रदेशी स्कंध से स्यात् स्पृष्ट होता है, स्यात् स्पृष्ट नहीं होता। १९९. भंते! वस्ति (मशक) वायुकाय से स्पृष्ट होता है अथवा वायुकाय वस्ति से स्पृष्ट होता है? गौतम! वस्ति वायुकाय से स्पृष्ट होता है, वायुकाय वस्ति से स्पृष्ट नहीं होता। द्रव्यों का वर्ण-आदि-पद २००. भंते! इस रत्नप्रभा-पृथ्वी के अधोवर्ती द्रव्य-पुद्गल वर्ण की दृष्टि से कृष्ण, नील, लाल, पीत और श्वेत। गंध की दृष्टि से सुरभिगंध, दुर्गंध। रस की दृष्टि से तिक्त, कटु, कषाय, आम्ल, मधुर। स्पर्श की दृष्टि से कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष हैं? वे अन्योन्य-बद्ध, अन्योन्य-स्पृष्ट, अन्योन्य-बद्ध-स्पृष्ट, अन्योन्य-एकीभूत बने हां, है। इसी प्रकार अधःसप्तमी की वक्तव्यता। २०१. भंते! सौधर्म-कल्प के अधोवर्ती द्रव्य (पुद्गल) यावत् एकीभूत हैं? पूर्ववत्। इसी प्रकार यावत् ईषत्-प्राग्भारा-पृथ्वी के। २०२. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। यावत् विहरण करने लगे। २०३. श्रमण भगवान् महावीर ने किसी दिन राजगृह नगर से गुणशिलक चैत्य से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर बाहर जनपद-विहार करने लगे। सोमिल ब्राह्मण-पद २०४. उस काल और उस समय में वाणिज्यग्राम नाम का नगर था-वर्णक। दूति-पलाशक चैत्य-वर्णक। उस वाणिज्य-ग्राम नामक नगर में सोमिल नाम का ब्राहाण रहता था-आढ्य यावत्। बहुजन के द्वारा अभिभूत। ऋग्वेद- यावत् परिव्राजक-संबंधी नयों में निष्णात । पांच सौ छात्रों और अपने कुटुम्ब का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, कर्तृत्व और आज्ञा देने में समर्थ तथा सेनापतित्व करता था, दूसरों से आज्ञा का पालन करवाता था। श्रमण भगवान् महावीर वहां आए, यावत् समवसृत हुए यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी। २०५. उस समय सोमिल ब्राह्मण के मन में इस कथा को सुनकर इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, गनोगत संकल्प समुत्पन्न हुआ-श्रमण ज्ञातपुत्र क्रमानुसार विचरण ग्रामानुग्राम में परिव्रजन करते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए यहां आए हैं, यहां संप्राप्त हुए हैं, यहां रामवसृत हुए हैं, इसी वाणिज्यग्राम नगर में, दूतिपलाशक चैत्य में प्रवास-योग्य स्थान की अनुमति लेकर संयग और तप से अपने आपको भावित
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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