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________________ भगवती सूत्र श. १८ : उ. ७ : सू. १३३-१३९ १३३. श्रमण भगवान् महावीर ने किसी समय राजगृह नगर और गुणशीलक चैत्य से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर बाहर जनपद-विहार करने लगे। कालोदायी-प्रभृति का पंचास्तिकाय-संदेह-पद १३४. उस काल और उस समय में राजगृह नाम का नगर था-वर्णक। गुणशिलक नाम का चैत्य-वर्णक यावत् पृथ्वी-शिलापट्ट। उस गुणशिलक चैत्य के न बहुत दूर न बहुत निकट अनेक अन्ययूथिक निवास करते थे, जैसे-कालोदायी, शैलोदायी, शैवालोदायी, उदक, नामोदक, नर्मोदक, अन्नपालक, शैलपालक, शंखपालक और सुहस्ती गृहपति। १३५. वे अन्ययूथिक किसी समय अपने-अपने आवास-गृहों से निकलकर एकत्र हुए, एक स्थान पर बैठे। उनमें परस्पर इस प्रकार का समुल्लाप प्रारंभ हुआ श्रमण ज्ञातपुत्र पांच अस्तिकायों की प्रज्ञापना करते हैं, जैसे-धर्मास्तिकाय यावत् पुद्गलास्तिकाय। श्रमण ज्ञातपुत्र चार अस्तिकायों को अजीव-काय बतलाते हैं, जैसे-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय । श्रमण ज्ञातपुत्र एक जीवास्तिकाय को जो अरूपि-काय है, जीव-काय बतलाते हैं। श्रमण ज्ञातपुत्र चार अस्तिकायों को अरूपि-काय बतलाते हैं, जैसे-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय। श्रमण ज्ञातपुत्र एक पुद्गलास्तिकाय को रूपि-काय अजीव-काय बतलाते हैं, क्या यह ऐसा है? १३६. राजगृह नगर में मद्दुक नाम का श्रमणोपासक था-आढ्य यावत् बहुजन के द्वारा अपरिभूत, जीव-अजीव को जानने वाला, यावत् आत्मा को भावित करते हुए रह रहा था। १३७. श्रमण भगवान् महावीर किसी दिन क्रमानुसार विचरण, ग्रामानुग्राम में परिव्रजन और सुखपूर्वक विहार करते हुए जहां राजगृह नगर और गुणशिलक चैत्य था, वहां आए। स्वामी समवसृत हुए, परिषद् यावत् पर्युपासना करने लगी। १३८. श्रमणोपासक मद्दुक इस कथा को सुनकर हृष्ट-तुष्ट चित्त वाला, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मन वाला, परमसौमनस्य-युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय-वाला हो गया। उसने स्नान किया यावत् अल्पभार और बहुमूल्य वाले आभरणों से शरीर को अलंकृत किया। अपने घर से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर पैदल चलते हुए राजगृह नगर के बीचोंबीच निर्गमन किया। निर्गमन कर उन अन्ययूथिकों के न अति दूर न अति निकट व्यतिव्रजन किया। १३९. अन्ययूथिकों ने मद्दुक श्रमणोपासक को न अति दूर न अति निकट व्यतिव्रजन करते हुए देखा। देखकर परस्पर एक-दूसरे को बुलाया, बुला कर इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो! यह कथा-अस्तिकाय की वक्तव्यता हमारे लिए अप्रकट है-अस्पष्ट है। श्रमणोपासक मद्दुक न अति दूर न अति निकट हमारे पार्श्ववर्ती मार्ग से जा रहा है। देवानुप्रियो! हमारे लिए यह श्रेय है कि हम यह अर्थ मद्दुक से पूछे, यह चिंतन कर एक दूसरे के पास जाकर इस विषय का प्रतिश्रवण किया, प्रतिश्रवण कर जहां श्रमणोपासक मद्दुक था, वहां आए, आकर ६४५
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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