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________________ भगवती सूत्र श. १८ : उ. ३ : सू. ६२-६८ वाला पृथ्वीकायिक कृष्ण-लेश्या वाले पृथ्वीकाि अनन्तर उद्वर्तन कर यावत् सब दुःखों का अंत करता है। आर्यो! तीन लेश्या वाला पृथ्वीकायिक यावत् सब दुःखों का अंत करता है। इसी प्रकार कापोत- लेश्या वाले पृथ्वीकायिक की वक्तव्यता । पृथ्वीकायिक की भांति अप्कायिक की वक्तव्यता । इसी प्रकार वनस्पतिकायिक की भी वक्तव्यता । यह अर्थ सत्य है । ६३. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। यह कह कर श्रमण-निर्ग्रन्थों ने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन - नमस्कार किया, वंदन - नमस्कार कर जहां माकंदिक - पुत्र अनगार था, वहां आए, आकर माकंदिक-पुत्र अणगार को वंदन - नमस्कार किया, वन्दन - नमस्कार कर सम्यक् विनयपूर्वक इस अर्थ के लिए बार-बार क्षमायाचना की । ६४. माकन्दिक-पुत्र अनगार उठने की मुद्रा में उठा, उठकर जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां आया, आकर श्रमण भगवान् महावीर को वंदन - नमस्कार किया, वन्दन- नमस्कार कर इस प्रकार बोला ६५. भंते! भावितात्मा अनगार सब कर्मों का वेदन करता है, सब कर्मों की निर्जरा करता है, सब मरण से मरता है, सब शरीर का त्याग करता है, चरम कर्म का वेदन करता है, चरम कर्म की निर्जरा करता है, चरम मरण से मरता है, चरम शरीर का त्याग करता है, मारणान्तिक कर्म का वेदन करता है, मारणान्तिक कर्म की निर्जरा करता है, मारणान्तिक मरण से मरता है, मारणान्तिक शरीर का त्याग करता है, उसके जो चरम निर्जरा - पुद्गल है, आयुष्मन् श्रमण ! क्या वे पुद्गल सूक्ष्म प्रज्ञप्त हैं ? क्या वे पुद्गल सर्व लोक का अवगाहन कर ठहरे हुए हैं ? हां, माकन्दिक - पुत्र ! भावितात्मा अनगार सब कर्मों का वेदन करता है यावत् इसके जो चरम निर्जरा - पुद्गल हैं, आयुष्मन् श्रमण ! वे पुद्गल सूक्ष्म प्रज्ञप्त हैं। वे सर्व-लोक का अवगाहन कर ठहरे हुए हैं। निर्जरा - पुद्गल - जानना आदि पद ६६. भंते! छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा - पुद्गलों का कुछ भी अन्यत्व, नानात्व, अवमत्व, तुच्छत्व, गुरुत्व, लघुत्व को जानता देखता ? माकंदिक-पुत्र ! यह अर्थ संगत नहीं है । ६७. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा- पुद्गलों का कुछ भी अन्यत्व, नानात्व, अवमत्व, तुच्छत्व, गुरुत्व, लघुत्व को नहीं जानता - देखता है ? माकन्दिक- पुत्र ! कुछ देव भी उन निर्जरा - पुद्गलों का कुछ भी अन्यत्व, नानात्व, अवमत्व, तुच्छत्व, गुरुत्व और लघुत्व नहीं जानते-देखते । माकन्दिक - पुत्र ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है— छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा- पुद्गलों का कुछ भी अन्यत्व, नानात्व, अवमत्व, तुच्छत्व, गुरुत्व और लघुत्व को नहीं जानता देखता । आयुष्मन् श्रमण ! वे पुद्गल सूक्ष्म प्रज्ञप्त । सर्व-लोक का अवगाहन कर ठहरे हुए हैं । ६८. भंते! क्या नैरयिक उन निर्जरा- पुद्गलों को जानते देखते हैं? उनका आहरण करते हैं ? ६३५
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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