SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्र श. १८ : उ. २,३ : सू. ४९-५६ रहे मित्र, ज्ञाति, स्वजन, कुटुम्बी, संबंधी, परिजनों ज्येष्ठ पुत्र तथा एक हजार आठ वणिकों के साथ संपूर्ण ऋद्धि यावत् दुन्दुभि के निर्घोष से नादित शब्द के साथ हस्तिनापुर नगर के बीचोंबीच निर्गमन किया, गंगदत्त (भ. १६ / ७१ ) की भांति वक्तव्यता यावत् भंते! यह लोक बुढ़ापे और मौत से आदीप्त हो रहा है, जल रहा है। भंते! यह लोक बुढ़ापे और मौत से प्रदीप्त हो रहा है । प्रज्वलित हो रहा है। भंते! यह लोक बुढ़ापे और मौत से आदीप्त- प्रदीप्त हो रहा है यावत् आनुगामिकता के लिए होगा । इसलिए भंते! मैं एक हजार आठ वणिकों के साथ आपके द्वारा ही प्रव्रजित होना चाहता हूं यावत् धर्म का आख्यान चाहता हूं। ५०. अर्हत् मुनिसुव्रत ने एक हजार आठ वणिकों के साथ कार्तिक श्रेष्ठी को स्वयं प्रव्रजित कियां, यावत् धर्म का आख्यान किया - देवानुप्रिय ! इस प्रकार चलना चाहिए, इस प्रकार ठहरना चाहिए यावत् इस प्रकार संयम से संयत रहना चाहिए । ५१. एक हजार आठ वणिकों के साथ कार्तिक श्रेष्ठी ने अर्हत् मुनिसुव्रत के इस धार्मिक उपदेश को सम्यग् प्रकार से स्वीकार किया उसे भलीभांति जान कर वैसे ही संयमपूर्वक चलते हैं यावत् संयम से संयत रहते हैं । ५२. एक हजार आठ वणिकों के साथ वह कार्तिक श्रेष्ठी अनगार हो गया वह विवेकपूर्वक चलता है यावत् ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखता है। ५३. कार्तिक अनगार ने अर्हत् मुनिसुव्रत के तथारूप स्थविरों के पास सामायिक आदि चौदह पूर्वों का अध्ययन किया, अध्ययन कर अनेक षष्ठ-भक्त, दशम-भक्त, द्वादश-भक्त, अर्ध-मास और मास क्षपण - इस प्रकार विचित्र तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए बहुप्रतिपूर्ण बारह वर्ष श्रामण्य पर्याय का पालन किया, पालन कर मासिक संलेखना के द्वारा शरीर को कृश किया, कृश कर अनशन के द्वारा साठ-भक्तों का छेदन किया, छेदन कर आलोचना और प्रतिक्रमण कर समाधिपूर्ण दशा में काल - मास में काल को प्राप्त हो गया। वह सौधर्म कल्प में सौधर्मावतंसक विमान में उपपात -सभा के देवदूष्य से आच्छन्न देव-शयनीय में अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी अवगाहना से देवेन्द्र शक्र के रूप में उपपन्न हुआ । ५४. वह देवराज देवेन्द्र शक्र अभी उपपन्न मात्र होने पर पांच प्रकार की पर्याप्ति से पर्याप्त भाव को प्राप्त हो गया; शेष गंगदत्त की भांति वक्तव्यता (भ. १६ / ७२-७५) यावत् सब दुःखों का अंत करेगा । इतना विशेष है- स्थिति दो सागरोपम है, शेष पूर्ववत् । ५५. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। तीसरा उद्देशक माकन्दिक - पुत्र - पद ५६. उस काल और उस समय में राजगृह नगर का वर्णक । गुणशिलक चैत्य - वर्णक यावत् परिषद लौट गई। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के अंतेवासी माकंदिक पुत्र नामक अनगार भगवान् के पास आया। वह प्रकृति से भद्र था - मंडितपुत्र की - ६३३
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy