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________________ भगवती सूत्र श. १८ : उ. २ : सू. ४५-४९ ४५. कार्तिक श्रेष्ठी ने यावत् प्रतिनिष्कमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर जहां हस्तिनापुर नगर था, जहां अपना घर था, वहां आया। आकर एक हजार आठ वणिकों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! मैंने अर्हत् मुनिसुव्रत के पास धर्म को सुना, वही धर्म मुझे इष्ट, प्रतीप्सित और अभिरुचित है । देवानुप्रियो ! मैं संसार के भय से उद्विग्न यावत् प्रव्रजित होऊंगा। देवानुप्रियो ! तुम क्या सोचते हो ? क्या निश्चय कर रहे हो ? हृदय से तुम क्या चाहते हो? तुम्हारे सामर्थ्य कैसी है ? ४६. एक हजार आठ वणिकों ने कार्तिक श्रेष्ठी से इस प्रकार कहा - देवानुप्रिय ! यदि तुम संसार-भय से उद्विग्न हो यावत् प्रव्रजित होओगे । देवानुप्रिय ! हमारे लिए दूसरा कौन आलंबन है ? कौन आधार है और कौन प्रतिबंध है ? देवानुप्रिय ! हम भी संसारभय से उद्विग्न, जन्म और मरण से भीत, देवानुप्रिय के साथ अर्हत् मुनिसुव्रत के पास मुंड होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित होना चाहते हैं । ४७. कार्तिक श्रेष्ठी ने उन एक हजार आठ वणिकों से इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! यदि संसारभय से उद्विग्न और जन्म-मरण से भीत हो, तुम मेरे साथ अर्हत् मुनिसुव्रत के पास मुंड होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित होना चाहते हो तो देवानुप्रियो ! तुम अपने- अपने घर जाओ, विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य तैयार कराओ। मित्र, ज्ञाति, कुटुम्बी, स्वजन-संबंधी परिजनों को आमंत्रित करो । उन मित्र, ज्ञाति, कुटुम्बी, स्वजन, संबंधी, परिजनों का विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य से, गंध, वस्त्र, माल्य और अलंकार से सत्कार-सम्मान करो, उन्हीं मित्र, ज्ञाति, कुटुम्बी, स्वजन, संबंधी, परिजनों के सामने ज्येष्ठपुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करो, स्थापित कर मित्र, ज्ञाति, कुटुम्बी, स्वजन, संबंधी, परिजनों और ज्येष्ठ पुत्र से पूछो, पूछ कर हजारों पुरुषों द्वारा वहन की जानेवाली शिविका में चढ़ो, चढ़कर चलो, पीछे-पीछे चल रहे मित्र, ज्ञाति, कुटुम्बी, स्वजन, संबंधी, परिजनों और ज्येष्ठपुत्र के साथ संपूर्ण ऋद्धि यावत् दुंदुभि के निर्घोष से नादित शब्द के साथ काल का परिक्षेप किए बिना मेरे पास आओ। ४८. उन एक हजार आठ वणिकों ने कार्तिक श्रेष्ठी के इस अर्थ को विनयपूर्वक स्वीकार किया, स्वीकार कर जहां अपने-अपने घर थे, वहां गए, वहां जाकर विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार कराया, तैयार करा कर मित्र ज्ञाति, कुटुम्बी, स्वजन, संबंधी, परिजनों का विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य से वस्त्र, माल्य, गंध और अलंकार से सत्कार - सम्मान किया। उन्हीं मित्र, ज्ञाति, कुटुम्बी, स्वजन, संबंधी, परिजनों के सामने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित किया, स्थापित कर मित्र, ज्ञाति, कुटुम्बी, स्वजन, संबंधी, परिजनों और ज्येष्ठ पुत्र से पूछा-पूछ कर हजार पुरुषों द्वारा वहन की जानेवाली शिविका में चढ़े, चढ़कर चले। पीछे-पीछे चल रहे मित्र, ज्ञाति, कुटुम्बी, स्वजन, संबंधी, परिजनों और ज्येष्ठ पुत्रों के साथ संपूर्ण ऋद्धि यावत् दुंदुभि के निर्घोष से नादित शब्द के साथ काल का परिक्षेप किए बिना कार्तिक श्रेष्ठी के पास आए । गंगदत्त (भ. पीछे-पीछे चल ४९. कार्तिक श्रेष्ठी ने विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार कराया। १६/७१) की भांति वक्तव्यता यावत् शिविका पर चढ़ा चढ़ कर चला, ६३२
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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