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________________ श. १७ : उ. २ : सू. १९-२५ भगवती सूत्र दूसरा उद्देशक धर्माधर्म-स्थित-पद १९. भंते! संयत, विरत, अतीत के पाप कर्म का प्रतिहनन करने वाला, भविष्य के पाप- कर्म का प्रत्याख्यान करने वाला क्या धर्म में स्थित होता है ? असंयत, अविरत, अतीत के पाप-कर्म का प्रतिहनन और भविष्य के पाप कर्म का प्रत्याख्यान न करने वाला क्या अधर्म में स्थित होता है ? क्या संयतासंयत धर्माधर्म में स्थित होता है ? हां, गौतम ! संयत, विरत, अतीत के पाप-कर्म का प्रतिहनन करने वाला, भविष्य के पाप- कर्म का प्रत्याख्यान करने वाला धर्म में स्थित होता है। असंयत, अविरत, अतीत के पाप कर्म का प्रतिहनन और भविष्य के पाप कर्म का प्रत्याख्यान न करने वाला अधर्म में स्थित होता है । संयतासंयत धर्माधर्म में स्थित होता है । २०. भंते! धर्म में, अधर्म में, धर्माधर्म में क्या कोई प्राणी रुक सकता है ? सो सकता है ? खड़ा रह सकता है ? बैठ सकता है ? करवट ले सकता है ? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। २१. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है यावत् संयतासंयत धर्माधर्म में स्थित होता है ? गौतम ! संयत, विरत, अतीत के पाप कर्म का प्रतिहनन करने वाला और भविष्य के पाप- कर्म का प्रत्याख्यान करने वाला धर्म में स्थित होता है, वह धर्म को ही स्वीकार कर विहार करता है । असंयत, अविरत, अतीत पापकर्म का प्रतिहनन न करने वाला और भविष्य के पाप कर्म का प्रत्याख्यान न करने वाला अधर्म में स्थित होता है, वह अधर्म को ही स्वीकार कर विहार करता है । संयतासंयत धर्माधर्म में स्थित होता है, वह धर्माधर्म को स्वीकार कर विहार करता है । इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है - यावत् धर्माधर्म में स्थित होता है । २२. भंते! क्या जीव धर्म में स्थित हैं, अधर्म में स्थित हैं ? गौतम ! जीव धर्म में भी स्थित हैं, अधर्म में भी स्थित हैं, २३. नैरयिकों की पृच्छा । गौतम ! नैरयिक धर्म में स्थित नहीं हैं, अधर्म में स्थित हैं, धर्माधर्म में स्थित नहीं हैं । इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रियों की वक्तव्यता । ६१६ धर्माधर्म में स्थित हैं ? धर्माधर्म में भी स्थित हैं । २४. पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों की पृच्छा । गौतम! पंचेन्द्रिय-तिर्यक्योनिक धर्म में स्थित नहीं हैं, अधर्म में स्थित हैं, धर्माधर्म में भी स्थित हैं। मनुष्यों की जीवों की भांति वक्तव्यता । वाणमंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक नैरयिक की भांति वक्तव्य हैं । बालपंडित पद २५. भंते! अन्ययूथिक इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करते हैं - श्रमण पण्डित हैं,
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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