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________________ भगवती सूत्र श. १६ : उ. ५ : सू. ५५,५६ गंगदत्त देव के संदर्भ म परिणममाण-परिणत-पद ५५. अयि भंते! भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार बोले-भंते! देवराज देवेन्द्र शक्र जब कभी देवानुप्रिय को वंदन-नमस्कार करता है, सत्कार करता है यावत् पर्युपासना करता है। भंते! क्या कारण है-आज देवराज देवेन्द्र शक्र ने देवानुप्रिय से खड़े खड़े आठ प्रश्न-व्याकरण पूछे, पूछ कर संभ्रम-पूर्वक वंदन-नमस्कार किया, यावत् उसी दिशा में लौट गया? अयि गौतम! श्रमण भगवान् महावीर ने भगवान् गौतम से इस प्रकार कहा-गौतम! उस काल और उस समय में महाशुक्र-कल्प में महासामान्य विमान में दो देव महान् ऋद्धि यावत् महान् ऐश्वर्य वाले एक विमान में देव-रूप में उपपन्न हुए जैसे-मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक, अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपत्रक। मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक देव ने अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक देव से इस प्रकार कहा-परिणममाण पुद्गल परिणत नहीं हैं, अपरिणत हैं। परिणमन कर रहे हैं, इसलिए पुद्गल परिणत नहीं हैं, अपरिणत हैं। अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक देव ने उस मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक देव से इस प्रकार कहा-परिणममान पुद्गल परिणत हैं, अपरिणत नहीं हैं। परिणमन कर रहे हैं, इसलिए पुद्गल परिणत हैं, अपरिणत नहीं हैं। मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक देव को इस प्रकार प्रतिहत किया। प्रतिहत कर अवधि-ज्ञान का प्रयोग किया, प्रयोग कर मुझे अवधि-ज्ञान से देखा, देखकर इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक एवं मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ श्रमण भगवान् महावीर जंबूद्वीप द्वीप में भारत वर्ष में उल्लूकातीर नगर के बाहर एकजम्बुक चैत्य में योग्य स्थान की अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहार कर रहे हैं। इसलिए मेरे लिए श्रेय है कि मैं श्रमण भगवान् महावीर की वंदना यावत् पर्युपासना कर यह इस प्रकार का व्याकरण पूछं। इस प्रकार संप्रेक्षा की, संप्रेक्षा कर चार हजार सामानिक, तीन प्रकार की परिषद्, सात प्रकार की सेना, सात सेनाधिपति, सोलह हजार आत्मरक्षक-देव, अन्य बहु महासामान्य विमानवासी वैमानिक-देवों से संपरिवृत होकर यावत् दुंदुभि-निर्घोष से नादित रव के साथ जहां जंबूद्वीप द्वीप है, जहां भारत वर्ष है, जहां उल्लुकातीर नगर है, जहां एकजंबुक चैत्य है, जहां मैं हूं, वहां आने के लिए प्रस्थान किया। देवराज देवेन्द्र शक्र उस देव की दिव्य देव-ऋद्धि, दिव्य देव-द्युति, दिव्य देव-अनुभाग, दिव्य तेजोलेश्या को सहन न करता हुआ मेरे पास खड़े-खड़े आठ प्रश्न-व्याकरण पूछकर, संभ्रम-पूर्वक वंदना कर यावत् लौट गया। ५६. जिस समय श्रमण भगवान् महावीर ने भगवान् गौतम को यह अर्थ कहा, उसी समय वह देव उस देश-भाग में शीघ्र आ गया। उस देव ने श्रमण भगवान् महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार बोला-भंते! महाशुक्र-कल्प महासामान्य-विमान में एक मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक देव ने मुझे इस प्रकार कहा–परिणममान पुद्गल परिणत नहीं हैं, अपरिणत हैं। ५९९
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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