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________________ श. १६ : उ. ४,५ : सू. ५२-५४ भगवती सूत्र विपरिणमन को प्राप्त किए हुए स्थूल कर्म-पुद्गल शीघ्र ही विध्वस्त हो जाते हैं। वे जिस-तिस मात्रा में भी वेदना का वेदन करते हुए महानिर्जरा और महापर्यवसान वाले होते हैं। गौतम ! जैसे कोई पुरुष तपे हुए लोहे के तवे पर पानी की बूंद गिराता है। तपे हुए लोहे के तवे पर गिराई हुई पानी की बूंद शीघ्र ही विध्वस्त हो जाती है? हां, विध्वस्त हो जाती है। गौतम! उसी प्रकार श्रमण-निग्रंथों के शिथिल-रूप में किए हुए, निःसत्त्व किए हुए और विपरिणमन को प्राप्त किए हुए स्थूल कर्म-पुद्गल शीघ्र ही विध्वस्त हो जाते हैं। वे जिस-तिस मात्रा में वेदना का वेदन करते हुए महानिर्जरा और महापर्यवसान वाले होते हैं। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-अन्नग्लायक श्रमण-निग्रंथ जितने कर्मों की निर्जरा करता है, पूर्ववत् यावत् नरक में नैरयिक इतने कर्मों का करोड़ वर्ष, करोड़ों वर्ष अथवा क्रोड़ाक्रोड़ वर्ष में क्षय नहीं करता। ५३. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। ऐसा कह कर यावत् विहरण करने लगे। पांचवां उद्देशक शक्र का उत्क्षिप्त प्रश्नव्याकरण-पद ५४. उस काल और उस समय में उल्लुकातीर नाम का नगर था–वर्णक। एकजंबूक चैत्य-वर्णक। उस काल और उस समय में स्वामी समवसृत हुए यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी। उस काल उस समय वज्रपाणि देवराज देवेन्द्र शक्र—इस प्रकार जैसे द्वितीय उद्देशक (भ. १६/३३) की वक्तव्यता वैसे ही दिव्य यान-विमान से आया यावत् जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं, वहां आया, आकर श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वन्दन-नमस्कार कर इस प्रकार बोला-भंते! महान् ऋद्धि यावत् महान् ऐश्वर्य वाला देव बाहरी पुद्गलों का ग्रहण किए बिना आने में समर्थ है? यह अर्थ संगत नहीं है। भंते! महान् ऋद्धि यावत् महान् ऐश्वर्य वाला देव बाह्य पुद्गलों का ग्रहण कर आने में समर्थ हां, समर्थ है। भंते! महान् ऋद्धि यावत् महान् ऐश्वर्य वाला देव इस अभिलाप के अनुसार बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किए बिना गमन करने, बोलने, व्याकरण करने, चक्षु का उन्मेष और निमेष करने, शरीर के संकोचन, आसन, शय्या, निषद्या करने, विक्रिया करने, परिचारणा करने में समर्थ इन आठ प्रश्न-व्याकरणों को खड़े-खड़े पूछा, पूछकर संभ्रम-पूर्वक वंदना की, वंदना कर उसी दिव्य यान-विमान पर चढा, चढकर जिस दिशा से आया, उसी दिशा में लौट गया। ५९८
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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