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________________ भगवती सूत्र श. १६ : उ. १,२ : सू. २६-३३ २६. भंते! जीव मन-योग को निष्पन्न करता हुआ क्या अधिकरणी है, अधिकरण है? इस प्रकार जैसे श्रोत्रेन्द्रिय की वक्तव्यता, वैसे ही निरवशेष वक्तव्य है। वचन-योग की पूर्ववत् वक्तव्यता, इतना विशेष है-एकेन्द्रिय-वर्जित। इसी प्रकार काय-योग की वक्तव्यता, इतना विशेष है-सर्व जीवों के यावत् वैमानिक। २७. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। दूसरा उद्देशक जीवों का जरा-शोक-पद २८. राजगृह नगर यावत् गौतम ने इस प्रकार कहा-क्या जीवों के जरा है? शोक है? गौतम! जीवों के जरा भी है, शोक भी है। २९. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-जीवों के जरा भी है, शोक भी है? गौतम! जो जीव शारीरिक वेदना का वेदन करते हैं, उन जीवों के जरा तथा जो जीव मानसिक वेदना का वेदन करते हैं, उन जीवों के शोक होता है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-जीवों के जरा भी होती है, शोक भी होता है। इसी प्रकार नैरयिक की वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार की वक्तव्यता। ३०. भंते! क्या पृथ्वीकायिक-जीवों के जरा है? शोक है? गौतम ! पृथ्वीकायिक-जीवों के जरा है, शोक नहीं है। ३१. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है पृथ्वीकायिक-जीवों के जरा है, शोक नहीं है? गौतम ! पृथ्वीकायिक-जीव शारीरिक वेदना का वेदन करते हैं, मानसिक वेदना का वेदन नहीं करते। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है पृथ्वीकायिक-जीवों के जरा होती है, शोक नहीं होता। इस प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय की वक्तव्यता। शेष जीवों की भांति वक्तव्य हैं यावत् वैमानिक की वक्तव्यता। ३२. भंते! वह ऐसा ही है। भंते वह ऐसा ही है। यह कह कर यावत् पर्युपासना करने लगे। शक्र का अवग्रह-अनुज्ञापन-पद ३३. उस काल और उस समय में वज्रपाणि, पुरन्दर देवराज देवेन्द्र शक्र यावत् दिव्य भोगार्ह भोगों को भोगता हुआ विहरण कर रहा था। इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीप को विपुल अवधि-ज्ञान के द्वारा जानता हुआ, जानता हुआ देखता है यहां श्रमण भगवान् महावीर जम्बूद्वीप द्वीप में है। इस प्रकार जैसे तृतीय शतक (भ. ३/१०९) में ईशान की वक्तव्यता, उसी प्रकार शक्र की वक्तव्यता, इतना विशेष है-शक्र आभियोगिक-देवों को आमन्त्रित नहीं करता। उसकी पदाति सेना का अधिपति हरिणगमेषी देव, सुघोषा घंटा, विमान-निर्माता पालक, विमान का नाम पालक, निर्गमन का मार्ग उत्तर दिशा। दक्षिण-पूर्व में रतिकर पर्वत। शेष पूर्ववत् (भ. ३/२७) यावत् नाम बताकर पर्युपासना की। भगवान् ने धर्म कहा यावत् परिषद् लौट गई (उववाई, सू. ७१-७९)। ५९३
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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