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________________ भगवती सूत्र श. १५ : सू. १४१-१४६ है । श्रमण भगवान् महावीर जिन होकर जिन प्रलापी हैं यावत् विहरण कर रहे हैं। महान् अऋद्धि और असत्कार समुदय के द्वारा मेरे शरीर की मरणोत्तर क्रिया करना - इस प्रकार कहकर वह मुत्यु को प्राप्त हो गया । गोशाल का निर्हरण-पद १४२. मंखलिपुत्र गोशाल को मृत्यु प्राप्त जानकर आजीवक- स्थविरों ने हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण के बहु मध्यदेश भाग में श्रावस्ती नगरी का चित्रांकन कर मंखलिपुत्र गोशाल के बाएं पैर को रज्जु से बांधा, बांधकर तीन बार मुंह पर थूका, थूककर चित्रित श्रावस्ती नगरी के श्रृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर निम्न- निम्न स्वर में उद्घोष करते हुए, उद्घोष करते हुए इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! मंखलिपुत्र गोशाल जिन होकर जिन प्रलापी नहीं था, यावत् विहरण किया । यही मंखलिपुत्र गोशाल है, श्रमण घातक यावत् छद्मस्थ अवस्था में मृत्यु को प्राप्त हुआ है। श्रमण भगवान् महावीर जिन होकर जिन - प्रलापी है यावत् विहरण कर रहे हैं। शपथ-प्रतिमोचन करते हैं, करके दूसरी बार भी पूजा, सत्कार और स्थिरीकरण के लिए मंखलिपुत्र गोशाल के बाएं पैर से रज्जु को मुक्त किया, मुक्त कर हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण के द्वार को खोला, खोल कर मंखलिपुत्र गोशाल के शरीर को सुरभित गंधोदक से स्नान कराया, पूर्ववत् यावत् महान् ऋद्धि-सत्कार - समुदय के द्वारा मंखलिपुत्र गोशाल के शरीर की मरणोत्तर क्रिया की । १४३. श्रमण भगवान् महावीर ने किसी एक दिन श्रावस्ती नगरी से कोष्ठक चैत्य से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर बाहर जनपद-विहार करने लगे । भगवान् के रोग- आतंक - प्रादुर्भवन-पद १४४. उस काल और उस समय में 'मेंढिय-ग्राम' नाम का नगर था - वर्णक । उस मेंढिय - ग्राम नगर के बाहर उत्तर पूर्व दिशिभाग। यहां 'शान कोष्ठक' नाम का चैत्य था - वर्णक यावत् पृथ्वी - शिलापट्ट । उस शान कोष्ठक चैत्य के न अति दूर और न अति निकट, एक महान मालुका-कच्छ था–कृष्ण, कृष्णाभास वाला यावत् काली कजरारी घटा के समान, पत्र, पुष्प और फलयुक्त, हरा-भरा, विशिष्ट श्री से बहुत - बहुत उपशोभायमान खड़ा था। उस मेंढिय- ग्राम नगर में रेवती नाम की गृह स्वामिनी रहती थी वह आढ्या यावत् बहुजन के द्वारा अपरिभूत थी । १४५. श्रमण भगवान् महावीर किसी एक दिन क्रमानुसार विचरण, ग्रामानुग्राम परिव्रजन और सुखपूर्वक विहार करते हुए जहां मेंढ़िय-ग्राम नगर था, जहां शान कोष्ठक चैत्य था, वहां आए, यावत् परिषद् वापस नगर चली गई। १४६. श्रमण भगवान् महावीर के शरीर में विपुल रोग आतंक प्रकट हुआ - उज्ज्वल, विपुल, प्रगाढ, कर्कश, कटुक, चण्ड, दुःखद, कष्ट साध्य, तीव्र और दुःसह । उनका शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो गया । उसमें जलन पैदा हो गई। उनके शौच खून आने लगा, चारों वर्णों के लोगों ने कहा—मंखलिपुत्र गोशाल के तपः- तेज से पराभूत श्रमण भगवान् महावीर का शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो गया, उसमें जलन पैदा हो गई, ये छह माह के भीतर छद्मस्थ अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त करेंगे। ५७६
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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