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________________ भगवती सूत्र श. १५ : सू. १३९-१४१ कर हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका में चढ़ाना, चढ़ा कर श्रावस्ती नगरी के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर महान्-महान् शब्दों के द्वारा उद्घोष करते हुए, उद्घोष करते हुए इस प्रकार कहना- देवानुप्रियो! मंखलिपुत्र गोशाल जिन होकर जिन-प्रलापी, अर्हत् होकर अर्हत-प्रलापी, केवली होकर केवली-प्रलापी, सर्वज्ञ होकर सर्वज्ञ-प्रलापी, जिन होकर 'जिन' शब्द से अपने आपको प्रकाशित करता हुआ, विहरण कर इस अवसर्पिणी-काल में चौबीस तीर्थंकरों में अंतिम तीर्थंकर था, उसने सिद्ध यावत् सब दुःखों को क्षीण कर दिया। इस प्रकार ऋद्धि-सत्कार -समुदय के द्वारा मेरे शरीर की मरणोत्तर क्रिया करना। १४०. आजीवक-स्थविरों ने मंखलिपुत्र गोशाल के इस अर्थ को विनयपूर्वक स्वीकार किया। गोशाल का परिणाम-परिवर्तनपूर्वक कालधर्म-पद १४१. मंखलिपुत्र गोशाल के सातवीं रात में परिणमन करते हुए, सम्यक्त्व के प्राप्त होने पर इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ मैं जिन होकर जिन-प्रलापी नहीं हूं, अर्हत् होकर अर्हत्-प्रलापी नहीं हूं, केवली होकर केवली-प्रलापी नहीं हूं, सर्वज्ञ होकर सर्वज्ञ-प्रलापी नहीं हूं, मैंने जिन न होकर जिन शब्द से प्रकाशित करते हुए विहार किया। मैं ही मंखलिपुत्र गोशाल हूं। मैं श्रमण-घातक, श्रमण-मारक, श्रमण-प्रत्यनीक, आचार्य-उपाध्यायों का अयश करने वाला, अवर्ण करने वाला, अकीर्ति करने वाला हूं। मैंने बहुत असद्भाव की उद्भावना और मिथ्यात्व-अभिनिवेश के द्वारा स्वयं को, दूसरे को तथा दोनों को भ्रांत करते हुए, मिथ्या धारणा में व्युत्पन्न करते हुए विहरण किया। अपने तेज से अभिभूत होकर सात रात के भीतर मेरा शरीर पित्त-ज्वर से ग्रस्त होकर दाह से अपक्रांत होकर मैं छद्मस्थ-अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त करूंगा। श्रमण भगवान् महावीर जिन होकर जिन-प्रलापी, अर्हत् होकर अर्हत्-प्रलापी, केवली होकर केवली-प्रलापी, सर्वज्ञ होकर सर्वज्ञ-प्रलापी, जिन होकर जिन शब्द से अपने आपको प्रकाशित करते हुए विहार कर रहे हैं इस प्रकार संप्रेक्षा की, संप्रेक्षा कर आजीवक-स्थविरों को बुलाया, बुलाकर शपथ दिलाकर इस प्रकार कहा-मैं जिन होकर जिन-प्रलापी नहीं हं यावत् प्रकाशित करते हुए विहरण किया। मैं ही मंखलिपुत्र गोशाल हूं। मैं श्रमण-घातक, श्रमण-मारक, श्रमण-प्रत्यनीक, आचार्य-उपाध्यायों का अयश करने वाला, अवर्ण करने वाला, अकीर्ति करने वाला हूं। मैंने बहुत असद्भाव की उद्भावना और मिथ्यात्व-अभिनिवेश के द्वारा स्वयं को, दूसरे को तथा दोनों को भ्रांत करते हुए, मिथ्या धारणा में व्युत्पन्न करते हुए विहरण किया। अपने तेज से पराभूत होने पर मेरा शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो गया, मैं सात रात के भीतर दाह से अपक्रांत होकर छद्मस्थ-अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त करूंगा। इसलिए देवानुप्रियो! तुम मुझे मृत्यु को प्राप्त जानकर मेरे बाएं पैर को रज्जु से बांधना, बांधकर तीन बार मुंह पर थूकना, थूककर श्रावस्ती नगरी से शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर मुझे घसीटते हुए बाढ स्वर से उद्घोषणा करते हुए, उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहना-देवानुप्रियो! मंखलिपुत्र गोशाल जिन होकर जिन-प्रलापी नहीं था। यावत् छद्मस्थ-अवस्था में मृत्यु को प्राप्त हुआ ५७५
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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