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________________ भगवती सूत्र श. १५ : सू. १०१ आयुष्मन् काश्यप ! हमारे सिद्धान्त के अनुसार जो सिद्ध हुए हैं, जो सिद्ध हो रहे हैं, जो सिद्ध होंगे, वे सब चौरासी लाख महाकल्प, सात दिव्य, सात संयूथ, सात संज्ञी गर्भ, सात पोट्ट परिहार, पांच लाख साठ हजार छह सौ तीन कर्मों को क्रमशः क्षय कर उसके पश्चात् सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त और परिनिर्वृत हुए हैं, सब दुःखों को अंत किया है, करते हैं, अथवा करेंगे। जैसे महानदी गंगा जहां से प्रवृत्त हुई है, और जहां पर्यवसित हुई है, वह मार्ग लंबाई में पांच सौ योजन, चौड़ाई में आधा योजन और गहराई में पांच सौ धनुष है । इस गंगा के प्रमाण वाली सात गंगा से एक महागंगा, सात महागंगा से एक सादीन गंगा, सात सादीन गंगा से एक मृत गंगा, सात मृत गंगा से एक लोहित गंगा, सात लोहित गंगा से एक आवती गंगा, सात आवती गंगा से एक परमावती गंगा । इस प्रकार पूर्वापर के योग से एक लाख सत्रह हजार छह सौ उन्चास गंगा नदी हैं, ऐसा कहा गया है। उनका दो प्रकार से उद्धार प्रज्ञप्त है, जैसे- १. सूक्ष्म बोन्दि कलेवर २. बादर बोन्दि कलेवर । जो सूक्ष्म बोन्दि कलेवर है, वह स्थाप्य है । जो बादर बोन्दि कलेवर है, उसमें से सौ-सौ वर्षों के बीत जाने पर गंगा की बालुका का एक-एक कण निकाला जाए, जितने काल से वह कोष्ठक क्षीण, रज-रहित, निर्लेप और समाप्त हो जाए, वह है शर शर प्रमाण। ऐसे तीन लाख शर- प्रमाण काल से एक महाकल्प होता है। चौरासी लाख महाकल्प से महामानस होता है । १. अनंत संयूथ में जीव च्यवन कर उपरितन मानस में संयूथ देव के रूप में उपपन्न होता है । वहां वह दिव्य भोग भोगता है । भोगों को भोगता हुआ विहरण करता है । विहरण कर उस देवलोक से आयु-क्षय, भव-क्षय और स्थिति-क्षय के अनंतर प्रथम संज्ञी गर्भ में जीव के रूप में पुनः उत्पन्न हुआ। २. वहां से अनन्तर उद्वर्तन कर मध्यम मानस में संयूथ देव के रूप में उपपन्न हुआ। वह दिव्य भोगार्ह भोगों को भोगता हुआ विहरण करता है, विहरण कर उस देवलोक से आयुक्षय, भव-क्षय और स्थिति-क्षय के अनंतर च्यवन कर दूसरी बार संज्ञी गर्भ में जीव के रूप में पुनः उत्पन्न हुआ। ३. वहां से अनंतर उद्वर्तन कर निम्नवर्ती मानस में संयूथ देव के रूप में उपपन्न हुआ। वहां दिव्य भोगार्ह भोगों को यावत् च्यवन कर तीसरी बार संज्ञी गर्भ में जीव के रूप में उत्पन्न हुआ। ४. वहां से अनंतर उद्वर्तन कर उपरितन मानस में संयूथ देव के रूप में उपपन्न हुआ। वहां दिव्य भोगार्ह भोगों को यावत् च्यवन कर चौथी बार संज्ञी गर्भ में जीव के रूप में उत्पन्न हुआ । ५. वहां से अनंतर उद्वर्तन कर मध्यम मानुषोत्तर संयूथ देव में उपपन्न हुआ। वहां दिव्य भोगाई भोगों को यावत् च्यवन कर पांचवीं बार संज्ञी गर्भ में जीव के रूप में उत्पन्न हुआ। ६. वहां से अनंतर उद्वर्तन कर निम्नवर्ती मानुषोत्तर में संयूथ देव के रूप में उपपन्न हुआ। वहां दिव्य भोगाई भोगों को यावत् च्यवन कर छठी बार संज्ञी गर्भ में जीव रूप में उत्पन्न हुआ। ५६५
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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