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________________ भगवती सूत्र श. १५ : सू. ९८-१०१ जितना तपः तेज है उससे अनंत गुण विशिष्टतर तपः तेज स्थविर भगवान् का है, स्थविर भगवान् क्षांतिक्षम होते हैं। आनन्द ! स्थविर भगवान् का जितना तपः- तेज है, उससे अनन्त- गुण विशिष्टतर तपः - तेज अर्हत् भगवान् का है, अर्हत् भगवान् क्षांतिक्षम होते हैं। इसलिए आनन्द ! मंखलिपुत्र गोशाल अपने तपःतेज से एक प्रहार में कूटाघात की भांति राख का ढेर करने में प्रभु है, आनन्द ! अपने तपःतेज से एक प्रहार में कूटाघात की भांति राख का ढेर करना मंखलिपुत्र गोशाल का विषय है, आनन्द ! मंखलिपुत्र गोशाल अपने तपःतेज से एक प्रहार में कूटाघात की भांति राख का ढेर करने में समर्थ है। किन्तु वह अर्हत् भगवान् को (ऐसा नहीं कर सकता, (केवल) उन्हें परितापित कर सकता है । आनन्द स्थविर द्वारा गौतम आदि को अनुज्ञापन-पद ९९.आनंद! इसलिए तुम जाओ, गौतम आदि श्रमण निग्रन्थों को यह अर्थ कहो - आर्यो ! तुम मंखलिपुत्र गोशाल को धार्मिक प्रति- प्रेरणा से प्रतिप्रेरित मत करो, धार्मिक प्रतिस्मरण से प्रतिस्मारित मत करो, धार्मिक प्रत्युपचार- तिरस्कार से प्रत्युपचारित मत करो। मंखलिपुत्र गोशाल श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति मिथ्यात्व - विप्रतिपन्न है 1 १००. श्रमण भगवान् महावीर इस प्रकार कहने पर आनन्द स्थविर ने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन- नमस्कार किया, वंदन - नमस्कार कर जहां गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थ थे, वहां आया, आकर गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थों को आमन्त्रित किया, आमंत्रित कर इस प्रकार कहा- आर्यो ! मैं बेले के पारण में श्रमण भगवान् महावीर की अनुज्ञा से श्रावस्ती नगर के उच्च, नीच तथा मध्यम कुलों में यावत् गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थों को यह अर्थ कहो - आर्यो ! तुम मंखलिपुत्र गोशाल को धार्मिक प्रति प्रेरणा से प्रतिप्रेरित मत करो, धार्मिक प्रतिस्मारणा से प्रतिस्मारित मत करो, धार्मिक प्रत्युपचार तिरस्कार से प्रत्युपचारित मत करो । मंखलिपुत्र श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति मिथ्यात्व - विप्रतिपन्न है । गोशाल का भगवान के प्रति आक्रोश-पूर्वक स्वसिद्धान्त - निरूपण - पद १०१. जब आनंद स्थविर ने गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थों को यह अर्थ कहा, तो मंखलिपुत्र गोशाल ने हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर आजीवक संघ से संपरिवृत होकर महान् अमर्ष का भार ढोता हुआ शीघ्र त्वरित गति से श्रावस्ती नगरी के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां कोष्ठक चैत्य था, जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां आकर श्रमण भगवान् महावीर के न अति दूर और न अति निकट स्थित होकर श्रमण भगवान् महावीर से इस प्रकार कहा - आयुष्मन् काश्यप ! तुमने मेरे विषय में अच्छा कहा, आयुष्मन् काश्यप ! तुमने मेरे विषय में इस प्रकार साधु कहा- मंखलिपुत्र गोशाल मेरा धर्मान्तेवासी है, मंखलिपुत्र गोशाल मेरा धर्मान्तेवासी है। जो मंखलिपुत्र गोशाल तुम्हारा धर्मान्तेवासी था, वह शुक्ल शुक्लाभिजात होकर काल-मास में मृत्यु को प्राप्त कर किसी देवलोक में देव-रूप में उपपन्न हुआ है । मैं कोण्डिकायन गौत्रीय हूं, मेरा नाम उदायी है। मैंने गौतम-पुत्र अर्जुन के शरीर को छोड़ा, छोड़कर मंखलिपुत्र गोशाल के शरीर में अनुप्रवेश किया, अनुप्रवेश कर यह सातवां 'पोट्ट- परिहार' किया है। ५६४
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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