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________________ श. १५ : सू. ५७-६४ भगवती सूत्र सिद्धार्थ-ग्राम नगर और कूर्म-ग्राम नगर के बीच में एक बड़ा तिल का पौधा पत्र-पुष्प-युक्त, हरा-भरा और विशिष्ट आभा से बहुत-बहुत उपशोभायमान खड़ा था। ५८. मंखलिपुत्र गोशाल ने उस तिल के पौधे को देखा, देख कर मुझे वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार बोला-भंते! यह तिल का पौधा निष्पन्न होगा या नहीं होगा? इस पौधे पर लगे सात फूलों के जीव मर कर कहां जाएंगे? कहां उपपन्न होंगे? गौतम! मैंने मंखलिपुत्र गोशाल से इस प्रकार कहा-गोशाल! यह तिल का पौधा निष्पन्न होगा; निष्पन्न नहीं होगा, ऐसा नहीं है। इस पौधे पर लगे सात फूलों के जीव मर कर इसी पौधे की एक तिल फली में पुनः उपपन्न होंगे। ५९. मंखलिपुत्र गोशाल ने जो मैंने कहा, उस अर्थ पर श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, रुचि नहीं की, इस अर्थ पर अश्रद्धा करता हुआ,अप्रतीति करता हुआ, अरुचि करता हुआ, मुझे संकल्पित कर 'यह मिथ्यावादी हो' यह सोचकर मेरे पास से शनैः-शनैः पीछे सरक गया, पीछे सरक कर जहां तिल का पौधा था, वहां आया, आकर उस तिल के पौधे को जड़ की मिट्टी-सहित उखाड़ा, उखाड़कर एकांत में फेंक दिया। गौतम! उसी क्षण आकाश में दिव्य बादल घुमड़ने लगा। वह दिव्य बादल शीघ्र ही जोर-जोर से गरजने लगा, शीघ्र ही बिजली चमकने लगी, शीघ्र वर्षा शुरू हो गई। न अधिक पानी बहा, न अधिक कीचड़ हुआ। रजों और धूलिकणों को जमाने वाली दिव्य बूंदाबांदी हुई। उससे तिल के पौधे का रोपण हुआ। वह अंकुरित हुआ, बद्धमूल हुआ और वहीं पर प्रतिष्ठित हो गया। तिल पुष्प के वे सात जीव मर कर उसी तिल के पौधे की एक फली में सात तिलों के रूप में पुनः उपपन्न हो गए। बाल-तपस्वी-वैश्यायन-पद ६०. गौतम ! मैं मंखलिपुत्र गोशाल के साथ जहां कूर्म-ग्राम नगर था, वहां आया। उस कूर्म-ग्राम नगर के बाहर वैश्यायन नाम का बाल-तपस्वी निरंतर षष्ठ-षष्ठ-भक्त (दो-दो दिन का उपवास) तपःकर्म में आतापन-भूमि में दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापना लेते हुए विहार कर रहा था। सूर्य के ताप से तप्त होकर जूंएं उसकी जटाओं से निकल कर नीचे गिर रही थी, प्राण, भूत, जीव और सत्त्व की दया के लिए वह उन जूओं को पुनःपुनः सिर में डाल रहा था। ६१. मंखलिपुत्र गोशाल ने बाल-तपस्वी वैश्यायन को देखा, देखकर मेरे पास से शनैः-शनैः पीछे सरक गया, पीछे सरक कर जहां वैश्यायन बाल-तपस्वी था, वहां आया, आकर वैश्यायन बाल-तपस्वी को इस प्रकार बोला-क्या तुम मुनि हो, पिशाच हो अथवा जूओं के शय्यातर-जूओं को आश्रय देने वाले? ६२. बाल-तपस्वी वैश्यायन ने मंखलिपुत्र गोशाल के इस अर्थ को आदर नहीं दिया, स्वीकार नहीं किया, वह मौन रहा। ६३. मंखलिपुत्र गोशाल ने बाल-तपस्वी वैश्यायन को दूसरी बार भी, तीसरी बार भी इस प्रकार कहा-क्या तुम मुनि हो, पिशाच हो अथवा जूओं के शय्यातर? ६४. मंखलिपुत्र गोशाल के दूसरी बार भी, तीसरी बार भी इस प्रकार कहने पर बाल-तपस्वी ५५६
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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