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भगवती सूत्र
श. १५ : सू. ५०-५७ निपात-वृष्टि यावत् 'अहोदानम्-अहोदानम्' की उद्घोषणा। इसलिए वह धन्य, कृतार्थ, कृतपुण्य, कृतलक्षण है। उसने इहलोक और परलोक दोनों को सुधारा है। बहुल ब्राह्मण ने, बहुल ब्राह्मण ने मनुष्य जन्म और जीवन का अच्छा फल प्राप्त किया है। ५१. तंतुवायशाला में मुझे न देखकर मंखलिपुत्र गोशाल ने राजगृह नगर के भीतर, बाहर चारों
ओर मार्गणा-गवेषणा की। कहीं भी न मेरा शब्द सुनाई दिया, न छींक सुनाई दी और न कोई वार्ता। (मुझे कहीं भी न पाकर, वह वापिस) जहां तंतुवायशाला थी वहां आया, आकर शाटिका, उत्तरीय वस्त्र, भोजन आदि के बर्तन, पदत्राण, चित्रफलक आदि ब्राह्मण को दे दिए, देकर मस्तक तथा दाढी-मूंछ का मुंडन कराया, कराकर तंतुवायशाला से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर बाहिरिका नालंदा के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां
कोल्लाक सन्निवेश था, वहां आया। ५२. उस कोल्लाक सन्निवेश के बाहर बहुजन परस्पर इस प्रकार का आख्यान यावत् प्ररूपण
करते हैं-देवानुप्रिय! बहुल ब्राह्मण धन्य है, देवानुप्रिय! बहुल ब्राह्मण कृतार्थ है, देवानुप्रिय! बहुल ब्राह्मण कृतपुण्य है, देवानुप्रिय! बहुल ब्राह्मण कृतलक्षण है, देवानुप्रिय! बहुल ब्राह्मण ने इहलोक और परलोक-दोनों को सुधारा है, देवानुप्रिय! बहुल ब्राह्मण ने, बहुल ब्राह्मण ने मनुष्य जन्म और जीवन का अच्छा फल प्राप्त किया है। गोशाल का शिष्य रूप में अंगीकरण-पद ५३. बहुजन के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर मंखलिपुत्र गोशाल के मन में इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर की जैसी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम, लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत है, अन्य किसी तथारूप श्रमण अथवा ब्राह्मण को वैसी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत नहीं है, इसलिए निस्संदेह मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर होंगे, यह सोचकर उसने कोल्लाक सन्निवेश के भीतर-बाहर चारों ओर मेरी मार्गणा-गवेषणा की, चारों ओर मार्गणा-गवेषणा करते हुए कोल्लाक सन्निवेश के बाहर प्रणीतभूमि में वह मेरे साथ हो गया। ५४. मंखलिपुत्र गोशाल ने हृष्ट-तुष्ट होकर मुझे दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा
की, प्रदक्षिणा कर मुझे वंदन नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार बोला-भंते!
आप मेरे धर्माचार्य हैं, मैं आपका अंतेवासी हूं। ५५. गौतम ! मैंने मंखलिपुत्र गोशाल के इस अर्थ को स्वीकार कर लिया। ५६. गौतम ! मैंने मंखलिपुत्र गोशाल के साथ प्रणीतभूमि में छह वर्ष तक लाभ-अलाभ, सुख
-दुःख, सत्कार-असत्कार का प्रत्यनुभव करते हुए अनित्य जागरिका का प्रयोग किया। तिल-स्तम्भ-पद ५७. गौतम ! मैं एक दिन प्रथम शरद् काल समय में अल्प-वृष्टि-काल में मंखलिपुत्र गोशाल के
साथ सिद्धार्थ-ग्राम नगर से कूर्म-ग्राम नगर की ओर विहार के लिए संप्रस्थित हुआ। उस
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