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________________ (LVI) पर्याप्त नहीं है। व्याख्या में जो विस्तृत स्पष्टीकरण होता है वही आगम के गहन तत्त्व तक पाठक को पहुंचा सकता है। तब फिर प्रश्न होगा कि केवल अनुवाद वाले संस्करण का क्या लाभ? पहली बात तो यह है कि सामान्य पाठक का उद्देश्य ग्रन्थ की विषय-वस्तु से परिचित होना है। आगमों में निरूपित विषयों का परिचय प्राप्त करने पर यदि विशेष जिज्ञासा हो, तो वह आगे विस्तार से उसके अनुशीलन के लिए अभिप्रेरित हो सकता है। प्रथम परिचय के लिए सामान्यतः संक्षिप्त संस्करण का अध्ययन अधिक सुविधाजनक एवं सुगम रहता है। दूसरी बात है-जिन ग्रन्थों का पुनः पुनः पारायण करना होता है, उनके केवल अनुवाद वाले संस्करण ही अधिक उपयोगी बनते हैं। विस्तृत व्याख्या वाले ग्रंथों का परिमाण मूल ग्रंथ से दुगुना-तिगुना हो जाने से सामान्य पठन-पाठन या पारायण में वे अधिक उपयोगी नहीं रहते। देखा जाता है कि जहां वैदिक वाङ्मय–वेद, उपनिषद्, गीता, महाभारत, रामायण, पुराण आदि ग्रंथ अथवा बौद्ध वाङ्मय–त्रिपिटक आदि ग्रंथ अथवा अन्य धर्मों के धार्मिक ग्रंथ बाइबिल, कुरान आदि विपुल मात्रा में केवल अनुवाद (हिन्दी या अंग्रेजी) के साथ व्यापक रूप में उपलब्ध हैं, वहां जैन आगम-वाङ्मय का केवल हिन्दी/अंग्रेजी अनुवाद व्यापक रूप में उपलब्ध नहीं है। इसका परिणाम संभवतः यह आया है कि आज आगम-वाङ्मय में उपलब्ध जैन धर्म, जैन दर्शन, जैन संस्कृति आदि के विषय में व्यापक रूप में लोग नहीं जानते। औरों की तो क्या बात, हमारे जैन साधु-साध्वी या श्रावक-श्राविका भी उससे व्यापक रूप में परिचित नहीं हैं। हमारा मंतव्य है कि यदि सुगम, सरल, संक्षिप्त संस्करणों को व्यापक रूप में उपलब्ध कराया जाए तो विश्व में जैन धर्म, जैन दर्शन, जैन संस्कृति आदि को हम बहुत ही शीघ्र प्रचारित-प्रसारित कर सकते हैं। हमारा यह भी विश्वास है कि जैन सिद्धान्त अन्य सिद्धान्तों की तुलना में अधिक बुद्धिगम्य, तर्कसंगत/युक्तिसंगत और वैज्ञानिक हैं। इसलिए समग्र जैन समाज के लिए यह चिन्तन अपेक्षित है कि यदि हम भगवान महावीर के सिद्धान्तों को विश्व में अधिक से अधिक प्रचारित करना चाहते हैं तो हमें उनकी वाणी (आगम) को युगीन भाषाओं-हिन्दी, अंग्रेजी आदि में उपलब्ध कराना होगा। ___ इसी भाव को आचार्य तुलसी ने दसवेआलियं की भूमिका में इस प्रकार व्यक्त किया है-"आजकल जन-साधारण में ठोस साहित्य पढ़ने की अभिरुचि कम है। उसका एक कारण उपयुक्त साहित्य की दुर्लभता भी है । मुझे विश्वास है कि चिरकालीन साधना के पश्चात् पठनीय सामग्री सुलभ हो रही है, उससे भी जन-जन लाभान्वित होगा।'' सामान्य पाठक के अतिरिक्त विभिन्न विषयों के अध्येताओं, विद्वानों आदि के लिए भी प्राथमिक रूप में हमारे ये संस्करण अधिक उपयोगी बन सकते हैं। प्रारंभिक परिचय के पश्चात् यदि वे और अधिक गहराई से आगम-वाङ्मय का अनुशीलन/शोध १. दसवेआलियं, भूमिका, पृ. XXIV (तृतीय संस्करण)।
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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