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________________ पृष्ठ | सूत्र पंक्ति १६३ ६,६ अशुद्ध के करण प्रज्ञप्त है, चारों प्रकार के का करण प्राप्त है, चार प्रकार का करते, . पृष्ठ सूत्र पंक्ति अशुद्ध १६५ | २६ ६ वनस्पतिकायिक जीवों की वक्तव्यता। | वनस्पतिकायिक-जीवों की (वक्तव्यता) प्रकार का प्रयोग वक्तव्य है- प्रकार के प्रयोग प्राप्त हैं, जैसे१० । प्रकार यावत् वैमानिक देवों तक प्रकार जिसके जिसके | उससे कर्मों का उपचय वक्तव्य है | (उससे कर्मों का उपचय) यावत् वैमानिकों की (वक्तव्यता)। है? सादि | है?-चार भंग (सादि २ करण दो प्रकार के है- दो प्रकार का (करण प्राप्त है) • तीन - - - तीन प्रकार का (करण प्रज्ञप्त है)- करण चार प्रकार के प्रज्ञप्त है, चार प्रकार का करण प्रज्ञप्त है, इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार-देवों इस प्रकार (पूर्ति-पण्णवणा, पद २) यावत् स्तनित-कुमार-देव सात- कभी सात-, कभी औदारिक शरीर औदारिक-शरीर का वेदन करते है। (का वेदन करते हैं। नैरयिक जीव नैरयिक-जीव -प्रथम उद्देशक में ये विषय वर्णित (-प्रथम उद्देशक में ये विषय वर्णित पृष्ठ सूत्रपक्ति अशुद्ध शुद्ध |६ करते | स्यात् ज्ञानावरणीय-कर्म का बंध। (ज्ञानावरणीय-कर्म का बंध) स्यात् | कर्म-प्रकृतियों के बंध (कर्म-प्रकृतियों का बंध) करते हैं। करते हैं, ३ कर्म-प्रकृतियों का बंध वे (कर्म-प्रकृतियों का) बंध (वे) ४ -कर्म ३ स्यात् ज्ञानावरणीय-कर्म का बंध (ज्ञानावरणीय-कर्म का) बंध स्यात् करते। करते, ५ कर्म-प्रकृतियों के बंध (कर्म-प्रकृतियों का बंध) | २ | उपयोग वाला -उपयोग वाला | ३ का बन्ध वे (का बन्ध वे) २ करते। इसी प्रकार करते। २ ४७,५० ३ | है। शेष तीनों भंग (विकल्प) है-सादिनहीं है। है? सादि है, शेष तीनों ही (भंग (विकल्प)) है (-सादिनहीं है। है? चार भंग-पृच्छा। (सादि २ हैं। कुछ है-चारों ही (भंग) वक्तव्य हैं नगर यावत् गौतम ने इस प्रकार नगर (म. १/४-१०) यावत् (गौतम ने) इस प्रकार निरवशेष अपर्यवसित है। अपर्यनिसित है)। २ अविकल रूप से भन्ते! बहुकर्म, प्रयोग १. बहुकर्म, २. प्रयोग और वेदनीयकर्म३ कर्म-प्रकृतियों के बंध करता है। ४ | आयुष्य कर्म ५ करता। अनाहारक है। बादर कर्म-प्रकृतियों का बंध संख्येयगुना | अवेदक उससे | अनन्त-गुना | (संयत आदि) का , इसी प्रकार यावत् २ उपचय-वस्त्र उपचय, ३. वस्त्र कर्मस्थिति, स्त्री, संयत, सम्यग- ४. कर्मस्थिति, ५. स्त्री, ६. संयत, -दृष्टि, संज्ञी, ७. सम्यग-दृष्टि, ८. संज्ञी ॥१॥ भव्य, दर्शनी, पर्याप्तक, भाषक, ६. भव्य, १०. दर्शन (दर्शनी), ११. परीत, मानी, पर्याप्तक, १२. भाषक, १३. परीत, १४. ज्ञानी योगी, उपयोगी, आहारक, सूक्ष्म, १५. योगी, १६. उपयोगी, १७. चरम-बन्ध और अल्पबहुत्वा आहारक, १८. सूक्ष्म, १६. चरम -बन्ध और २०. अल्पबहुत्व ।।२।। तीसरे (तीसरे सर्वत्र | जीव ३ वेदनीय-कर्म (कर्म-प्रकृतियों का बंध) करता है, आयुष्य-कर्म करता, अनाहारक है, बादर (कर्म-प्रकृतियों का बंध) संख्येय-गुणा अवेदक उनसे अनन्त-गुणा (संयत आदि) (भ.६/३७-५१) का इस प्रकार (पूर्ति-पण्णवणा, पद २) यावत् (नरयिक-जीव) देव वनस्पतिकायिक-जीव शेष सभी जीव (पूर्ति-पण्णवणा, पद २) यावत् सिद्ध भांति (म.६/५५,५८) आहारक-जीवों सप्रदेश है, अप्रदेश हैं, सिद्ध-जीवों भांति (भ. ६/५४, ५७) जीव-आदि नैरयिक-आदि नैरयिकों, देवों नोअसंज्ञि-जीवों जीवों, मनुष्यों और सिद्धों ३ स्त्री भी ज्ञानावरणीय-कर्म का बंध (ज्ञानावरणीय-कर्म का) बंध स्त्री भी| |-प्रकृतियों के बंध की वक्तव्यता करें। -प्रकृतियों का बंध (वक्तव्य है)। | आयुष्य-कर्म का (आयुष्य-कर्म का) गौतम! संयत ज्ञानावरणीय-कर्म का गौतम! (ज्ञानावरणीय-कर्म का) बंध बंध स्यात् संयत स्यात् ७, ३८ ५ । | कर्म-प्रकृतियों के बंध की वक्तव्यता (कर्म-प्रकृतियों का बंध) (वक्तव्य है। ' ७ करते। करते, ३८१ |बंध सम्यग |बंध क्या सम्यग३ | ज्ञानावरणीय-कर्म का (ज्ञानावरणीय-कर्म का) सर्वत्र | नोसंज्ञी नोसंशिके बन्ध की वक्तव्यता। | (का बन्ध) (वक्तव्य है) करता। करता, कर्म-प्रकृतियों के बंध की वक्तव्यता (कर्म-प्रकृतियों का बंध) (वक्तव्य है)। करते। केवल करते, चौथा केवलकरता। इसी प्रकार इस प्रकार ४१, ४२५ कर्म-प्रकृतियों के बंध की वक्तव्यताः (कर्म-प्रकृतियों का बंध) (वक्तव्य है)। " |५-६ | वेदनीय-कर्म का विदनीय-कर्म का) है, केवल ४२,४६ ३ | ज्ञानावरणीय-कर्म का | (ज्ञानावरणीय-कर्म का) १६ ४२,४४३ करता। करता, करते। करते। तीसरासात कर्म-प्रकृतियों के बंध सातों (कर्म-प्रकृतियों का बंध) सातों ही कर्म-प्रकृतियों के बंध (सातों ही कर्म-प्रकृतियों का बंध) का बन्ध (का बंध) गा. वनस्पतिकायिक जीवों शेष सिद्धों तक सभी जीव ४ | २०८ महा-क्रिया, महा-आश्रव और महा-(महा-क्रिया, महा-आश्रव और महा|-वेदना -वेदना) ८, ६ पुरुष की आत्मा (शरीर) का परि-(पुरुष) की (आत्मा (शरीर) का परि णमन ऐसा ही होता है। णमन) पूर्ववत् (एसा ही होता है)। ४ है, यावत् है यावत् २ होता है। (होता है) होता है, (होता है) उपचय प्रयोग उपचय क्या प्रयोग प्रज्ञप्त है-जैसे मन प्रज्ञप्त हैं, जैसे-मन मांति आहारक जीवों ५ सप्रदेश है, अप्रदेश है, ६ सिद्ध जीवों ७ भांति सर्वत्र जीव आदि | नैरयिक आदि १० नैरयिक, देव ११ नोअसंज्ञी जीवों जीव, मनुष्य और सिद्ध २०१-०३ २०१ (१७)
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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