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फिर उसके प्रामाण्य के विषय में किसी को संदेह करने का अवकाश मिलता नहीं है। इस प्रकार चारों अनुयोगों का मूल भगवान् महावीर के उपदेश में ही है, यह एक मान्यता दृढ़ हुई।
"इस प्रश्न के कुछ पहलुओं पर विमर्श अपेक्षित है। महावीरकालीन साधुओं का अध्ययन ग्यारह अगों या द्वादशांगी तक सीमित है। उसमें अंगबाह्य श्रुत का कोई उल्लेख नहीं है। महावीर के निर्वाण के पश्चात् उत्तरवर्ती काल में अनेक आगम रचे गए। उन्हें अंगबाह्य श्रुत माना गया। यदि वे आगम स्थविरों द्वारा रचित होते तो उन्हें आगम की कोटि में स्थान नहीं मिलता। आगम के प्रामाण्य की एक निश्चित मर्यादा थी। केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी और दशपूर्वी द्वारा रचित ग्रन्थ ही आगम की कोटि में मान्य हो सकता था। नंदी सूत्र के अनुसार चतुर्दशपूर्वी और अभिन्नदशपूर्वी नियमतः सम्यग्श्रुत होते हैं। उससे नीचे नवपूर्वी आदि के लिए वह नियम नहीं है। इसका तात्पर्य यह है कि चतुर्दशपूर्वी और दशपूर्वी नियमतः सम्यग्दृष्टि-सम्पन्न होते हैं। नवपूर्वी आदि सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों हो सकते हैं। ___"अंगबाह्य आगम स्थविरों द्वारा रचित हैं। सभी स्थविर चतुर्दशपूर्वी और दशपूर्वी नहीं थे। प्रामाण्य की कसौटी के आधार पर उन्हें आगम की कोटि में स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह एक समस्या थी। इसका समाधान किया गया जो आगमपुरुष नहीं है उसके वचन का प्रामाण्य नहीं हो सकता, किन्तु यदि वह अंग-सूत्रों के आधार पर रचना करता है तो उसका वचन प्रमाण हो सकता है। देवर्धिगणी ने आगम-वाचना के समय इसी आधार पर स्थविरकृत ग्रन्थों को आगम की कोटि में परिगणित किया। अंगबाह्य श्रुत उत्तरकालीन रचना है, इसलिए वह व्यवस्थित रूप में उपलब्ध है। उसका कोई भी हिस्सा विच्छिन्न नहीं है, विच्छिन्नता की बात अंगों के साथ जुड़ी हुई है, इसलिए वे अंगबाह्य श्रुत की भांति व्यवस्थित नहीं हैं। प्रस्तुत आगम में 'चलमाणे चलिए' यह पहला प्रश्न है। इसके बाद ही नैरयिकों की कितनी स्थिति है और वे कितने काल से श्वासोच्छ्वास लेते हैं? ये प्रश्न आते हैं और यहीं से प्रज्ञापना को देखने का निर्देश शुरू हो जाता है। पहले प्रश्न के साथ इन प्रश्नों का कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं होता। सम्बन्ध-स्थापना या व्यवस्था की दृष्टि से ग्यारहवें और बारहवें सूत्र के पश्चात् सोलहवां सूत्र होना चाहिए। इसमें किसी दूसरे आगम को देखने की जरूरत नहीं है और पूर्व प्रश्न के साथ इनका सम्बन्ध भी जुड़ता है। इसी प्रकार इकतीसवें सूत्र के पश्चात् तेतीसवां सूत्र होना चाहिए। बत्तीसवें सूत्र में फिर प्रज्ञापना को देखने का निर्देश है। ऐसी कल्पना की जा सकती है कि नैरयिक के प्रसंग में नैरयिक सम्बन्धी १. जैन दर्शन का आदि काल, पृ. १३। दशवकालिक : एक समीक्षात्मक २. व्यवहार-भाष्य और भगवती-वृत्ति में अध्ययन, पृ. ५।
नवपूर्वी को भी आगम माना गया है। ३. नंदी चूर्णि, सू. ६९, पृ. ४८-४९ । विशेष जानकारी के लिए देखें- ४. अंगसुत्ताणि, भाग २, भगवई, १/११ ।