SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 497
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्र श. ११ : उ. ११ : सू. १३४-१३८ प्रतिपूर्ण पंचेन्द्रिय- शरीर वाला, लक्षण और व्यंजन गुणों उपेत, मान, उन्मान और प्रमाण से प्रतिपूर्ण, सुजात, सर्वांग सुन्दर, चंद्रमा के समान सौम्य आकार वाला, कांत, प्रियदर्शन, सुरूप और देव कुमार के समान प्रभा वाला होगा । वह बालक बाल-अवस्था को पार कर विज्ञ और कला का पारगामी बनकर, यौवन को प्राप्त कर, शूर, वीर, विक्रांत, विपुल और विस्तीर्ण सेना वाहन युक्त, राज्य का अधिपति राजा होगा । इसलिए देवी ! तुमने उदार स्वप्न देखा है यावत् आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याण और मंगलकारी स्वप्न देखा है। ऐसा कह कर उन इष्ट यावत् मंजुल शब्दों के द्वारा दूसरी तीसरी बार भी प्रभावती देवी के उल्लास को बढाया । १३५. राजा बल के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर प्रभावती देवी हृष्ट-तुष्ट हो गई । दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! यह ऐसा ही है । देवानुप्रिय ! यह तथा (संवादिता पूर्ण ) है । देवानुप्रिय ! यह अवितथ है । देवानुप्रिय ! यह असंदिग्ध है। देवानुप्रिय ! यह इष्ट है । देवानुप्रिय ! यह प्रतीप्सित ( प्राप्त करने के लिए इष्ट) है । देवानुप्रिय ! यह इष्ट-प्रतीप्सित है। जैसा आप कह रहे हैं वह अर्थ सत्य है - ऐसा भाव प्रदर्शित कर उस स्वप्न के फल को सम्यक् स्वीकार किया । स्वीकार कर बल राजा की अभ्यनुज्ञा प्राप्त कर नाना मणिरत्न की भांतों से चित्रित भद्रासन से उठी । उठकर अत्वरित, अचपल, असंभ्रांत, अविलंबित राजहंसिनी के सदृश गति द्वारा जहां अपना शयनीय था, वहां आई, वहां आकर शयनीय पर बैठ गई । बैठकर इस प्रकार बोली- मेरा वह उत्तम, प्रधान और मंगल स्वप्न किन्हीं अन्य पाप स्वप्नों के द्वारा प्रतिहत न हो जाए। ऐसा कहकर वह देव तथा गुरुजनों से संबद्ध प्रशस्त मंगल धार्मिक कथाओं के द्वारा स्वप्न जागरिका के प्रति सतत प्रतिजागृत रहती हुई विहार करने लगी । १३६. उस बल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहा - हे देवानुप्रिय ! आज शीघ्र ही बाहरी उपस्थानशाला ( सभामंडप ) को विशेष रूप से सुगंधित जल से सींच, झाड़-बुहार कर, गोबर का लेप कर, प्रवर सुगंधित पंच वर्ण के पुष्पों के उपचार से युक्त, काली अगर, प्रवर कुन्दुरु, जलते हुए लोबान की धूप से उद्धत गंध से अभिराम, प्रवर सुरभि वाले गंध चूर्णों से सुगंधित गंध-वर्तिका के समान करो, कराओ। कर तथा करा कर सिंहासन की रचना करो । रचना कर मेरी आज्ञा मुझे प्रत्यर्पित करो । १३७. उन कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् स्वीकार कर शीघ्र ही बाहरी उपस्थान- शाला को विशेष रूप से सुगंधित जल से सींचा, झाड़-बुहार कर गोबर का लेप किया। प्रवर सुगंधित पंच वर्ण पुष्प के उपचार से युक्त, काली अगर, प्रवर कुंदुरु और जलती हुई लोबान की धूप से उद्धत सुगंध से अभिराम, प्रवर सुरभि वाले गंध चूर्णों से सुगंधित गंधवर्तिका के समान कर, कराकर सिंहासन की रचना की । रचना कर उस आज्ञा को प्रत्यर्पित किया । १३८. वह बल राजा प्रत्यूष काल समय में शयनीय से उठा, उठकर पादपीठ से उतरा, उतरकर जहां व्यायामशाला थी, वहां आया, व्यायामशाला में अनुप्रवेश किया, जैसे उववाई ४२७
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy