SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 491
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्र अलोक का परिमाण - पद ११०. भंते! अलोक कितना बड़ा प्रज्ञप्त है ? गौतम ! इस समय क्षेत्र में पैतालीस लाख योजन लम्बा-चौड़ा है। उसकी परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनपचास (१,४२,३०,२४९) योजन से कुछ अधिक है। उस काल और उस समय में दस देव महान ऋद्धि वाले यावत् महासुख वाले जम्बूद्वीप द्वीप में मंदर पर्वत पर मंदर चूलिका को चारों ओर से घेरे हुए खड़े हैं। नीचे आठ दिशाकुमारी महत्तरिकाओं ने आठ बलिपिण्डों को ग्रहण कर मानुषोत्तर पर्वत की चारों दिशाओं और चारों विदिशाओं में बाह्याभिमुख स्थित होकर उन आठ बलिपिण्डों को एक साथ बाहर फेंका। गौतम ! प्रत्येक देव उन आठ बलिपिण्डों का भूमि के तल पर गिरने से पूर्व शीघ्र ही प्रतिसंहरण करने में समर्थ है । श. ११ : उ. १० : सू. ११०, १११ गौतम ! उन देवों ने उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, चण्ड, जविनी, छेक, सैंही, शीघ्र, उद्भुत और दिव्य देव गति के द्वारा लोकांत में स्थित होकर असद्भाव प्रस्थापन के अनुसार प्रस्थान किया । एक देव ने पूर्व दिशा की ओर प्रयाण किया, एक देव ने दक्षिण-पूर्व की ओर प्रयाण किया, एक देव ने दक्षिण की ओर प्रयाण किया, एक देव ने दक्षिण-पश्चिम की ओर प्रयाण किया, एक देव ने पश्चिम की ओर प्रयाण किया, एक देव ने पश्चिम - उत्तर की ओर प्रयाण किया, एक देव ने उत्तर की ओर प्रयाण किया । एक देव ने उत्तर-पूर्व की ओर प्रयाण किया । एक देव ने ऊर्ध्व दिशा की ओर प्रयाण किया। एक देव ने अधो दिशा की ओर प्रयाण किया । उस काल और उस समय में एक लाख वर्ष की आयु वाले शिशु का जन्म हुआ। उस शिशु माता- पिता प्रक्षीण हुए, फिर भी वे देव अलोक का अंत नहीं पा सके। उस शिशु का आयुष्य भी प्रक्षीण हो गया, फिर भी वे देव अलोक का अंत नहीं पा सके। उस शिशु की अस्थि मज्जा प्रक्षीण हो गई, फिर भी वे देव अलोक का अंत नहीं पा सके। उस शिशु के सात कुल वंश (पीढ़ियां ) प्रक्षीण हो गए फिर भी वे देव अलोक का अंत नहीं पा सके। उस शिशु का नाम - गोत्र प्रक्षीण हो गया। फिर भी वे देव अलोक का अंत नहीं पा सके । भंते! उन देवों का गत-क्षेत्र बहुत है ? अगत क्षेत्र बहुत है ? गौतम ! गत- क्षेत्र बहुत नहीं है, अगत क्षेत्र बहुत है । गत क्षेत्र से अगत क्षेत्र अनंत गुण है । और अगत क्षेत्र से गत क्षेत्र अनंत भाग है । गौतम! अलोक इतना बड़ा प्रज्ञप्त है । लोकाकाश में जीव- प्रदेश - पद १११. भंते! लोक के एक आकाश-प्रदेश में जो एकेन्द्रिय- प्रदेश यावत् पंचेन्द्रिय प्रदेश, अनिन्द्रिय-प्रदेश, अन्योन्य - बद्ध, अन्योन्य- स्पृष्ट, अन्योन्य-बद्ध - स्पृष्ट और अन्योन्य- एकीभूत बने हुए हैं। भंते! क्या वे परस्पर किञ्चित् आबाध अथवा व्याबाध उत्पन्न करते हैं ? छविच्छेद करते हैं ? यह अर्थ संगत नहीं है । ४२१
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy