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________________ भगवती सूत्र श. ९ : उ. ३३ : सू. १९८-२०४ १९८. क्षत्रियकुमार जमालि के दक्षिण पश्चिम में एक प्रवर तरुणी मूर्तिमान शृंगार और सुन्दर वेश वाली, चलने, हंसने, बोलने और चेष्टा करने में निपुण, विलास और लालित्यपूर्ण संलाप में निपुण, समुचित उपचार में कुशल, सुन्दर स्तन, कटि, मुख, हाथ, पैर, नयन, लावण्य, रूप, यौवन और विलास से कलित, विचित्र स्वर्णदण्ड वाले तालवृंत (वीजन ) लेकर खड़ी हो गई। १९९. क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुला कर इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! शीघ्र ही सदृश, समान त्वचा वाले, समान वय वाले, सदृश लावण्य रूप और यौवन गुणों से उपेत, एक जैसे आभरण, वेश और कमर-बंध धारण किए हुए एक हजार प्रवर तरुण कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाओ। २००. कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् विनय-पूर्वक वचन को स्वीकार कर शीघ्र ही सदृश, समान त्वचा वाले, समान वय वाले, समान लावण्य, रूप और यौवन गुणों से उपेत, एक जैसे आभरण, वेश और कमरबंध धारण किए हुए एक हजार प्रवर तरुण कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। २०१. वे प्रवर तरुण कौटुम्बिक पुरुष क्षत्रियकुमार जमालि के पिता के निर्देशानुसार कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बुलाये जाने पर हृष्ट-तुष्ट हो गए। उन्होंने स्नान और बलिकर्म किया, कौतुक, मंगल और प्रायश्चित्त किया। एक जैसे आभरण, वेश और कमरबंध धारण कर जहां क्षत्रियकुमार जमालि के पिता हैं, वहां आए, आकर दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमा कर 'जय हो-विजय हो' के द्वारा वर्धापित किया। वर्धापित कर इस प्रकार बोले–देवानुप्रिय! हमें जो करणीय है, उसका संदेश दें। २०२. क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने उन एक हजार प्रवर तरुण कौटुम्बिक पुरुषों से इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो! तुम स्नान और बलिकर्म कर, कौतुक, मंगल और प्रायश्चित्त कर, एक जैसे आभरण, वेश और कमरबंध धारण कर क्षत्रियकुमार जमालि की शिविका को वहन करो। २०३. एक हजार प्रवर तरुण कौटुम्बिक पुरुषों ने क्षत्रियकुमार जमालि के पिता के इस प्रकार कहने पर यावत् विनयपूर्वक वचन को स्वीकार कर स्नान किया यावत् एक जैसे आभरण, वेश और कमरबंध धारण कर क्षत्रियकुमार जमालि की शिविका को वहन किया। २०४. हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका पर आरूढ़ क्षत्रियकुमार जमालि के आगे-आगे सबसे पहले ये आठ-आठ मंगल प्रस्थान कर रहे थे, जैसे-स्वस्तिक, श्रीवत्स, नंद्यावर्त्त, वर्धमानक, भद्रासन, कलश, मत्स्य और दर्पण। उसके बाद पूर्ण कलश, झारी, दिव्य छत्र, पताका, चामर तथा जमालि के दृष्टिपथ में आए, उस प्रकार आलोक में दर्शनीय, वायु से प्रकंपित विजय-वैजयंती ऊंची और तल का स्पर्श करती हुई आगे-आगे यथानुपूर्वी प्रस्थान कर रही थी। उसके पश्चात् वैडूर्य से दीप्यमान विमल दंड वाला, लटकती हुई कटसरैया की माला और दाम से शोभित, चन्द्रमंडल को आभा वाला ऊंचा विमल छत्र तथा प्रवर मणिरत्न जटित ३७७
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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