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________________ श. ९ : उ. ३३ : सू. १७३-१७७ भगवती सूत्र अगार से अनगारिता में प्रवजित हो जाना। १७४. क्षत्रियकुमार जमालि ने माता-पिता से इस प्रकार कहा-माता-पिता! यह वैसा ही है, जैसा आप कह रहे हैं-जात! ये तुम्हारी आठ पत्नियां विशाल कुल की बालिकाएं हैं यावत् तुम अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो जाना। माता-पिता! ये मनुष्य संबंधी कामभोग, मल, मूत्र, कफ, नाक के मैल, वमन, पित्त, मवाद, शुक्र और शोणित से समुत्पन्न होते हैं। अमनोज्ञ, विकृत और कुथित मल-मूत्र से परिपूर्ण हैं। मृतक की गंध जैसे उच्छ्वास और अशुभ निःश्वास से उद्वेग पैदा करने वाले, बीभत्स, अल्पकालिक, स्वल्पसार-सहित (तुच्छ), जठर में होने वाले मल की अवस्थिति से दुःखद, बहुजनसाधारण-सर्वसुलभ, महान् मानसिक और शारीरिक कष्ट साध्य, अबुधजनों के द्वारा आसेवित, साधु-जनों के द्वारा सदैव गर्हणीय, अनन्त संसार को बढ़ाने वाले, कटु फल-विपाक वाले, इन्हें न छोड़ने पर ये प्रदीप्त तृण-पूलिका के समान दुःखानुबंधी और सिद्धि -गमन के विघ्न हैं। माता-पिता! यह कौन जानता है-कौन पहले जाएगा? कौन पीछे जाएगा? माता-पिता! इसलिए मैं चाहता हूं तुम्हारे द्वारा अनुज्ञात होकर मैं श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो जाऊं। १७५. माता-पिता ने क्षत्रियकुमार जमालि से इस प्रकार कहा-जात! तुम्हारे पितामह (दादा) प्रपितामह (परदादा) और प्रप्रपितामह (परदादा के पिता) से प्राप्त यह बहुत सारा हिरण्य, सुवर्ण, कांस्य, दूष्य (बहुमूल्य वस्त्र) विपुल वैभव-कनक, रत्न, मणि, मौक्तिक, शंख, मेनसिल, प्रवाल, लालरत्न और श्रेष्ठसार-इन वैभवशाली द्रव्यों से, जो सातवीं पीढ़ी तक प्रकाम देने के लिए, प्रकाम भोगने और बांटने के लिए समर्थ हैं इसलिए जात! तुम मनुष्य-संबंधी विपुल ऋद्धि, सत्कार और समुदय का अनुभव करो। कुलवंश के तंतु-कार्य से निरपेक्ष हो जाओ, उसके पश्चात् कल्याण का अनुभव कर श्रमण भगवान महावीर के पास मुंड हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो जाना। १७६. क्षत्रियकुमार जमालि ने माता-पिता से इस प्रकार कहा-यह वैसा ही है, जैसा आप कह रहे हैं जात! पितामह, प्रपितामह, प्रप्रपितामह से प्राप्त हिरण्य यावत् अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो जाना। माता-पिता! यह हिरण्य, सुवर्ण यावत् वैभवशाली द्रव्य अग्नि-साधित है-अग्नि जला सकती है, चोर-साधित हैं-चोर चुरा सकते हैं, राज-साधित हैं-राजा अधिकृत कर सकता है, मृत्यु-साधित हैं मृत्यु उससे वंचित कर सकती है। दायाद-साधित हैं भागीदार विभाजित कर सकते हैं। अग्नि-सामान्य-अग्नि का स्वामित्व है, चोर-सामान्य-चोर का स्वामित्व है, राज-सामान्य-राजा का स्वामित्व है, मृत्यु-सामान्य-मृत्यु का स्वामित्व है और दायाद-सामान्य-भागीदार का स्वामित्व है, अध्रुव, अनियत और अशाश्वत हैं। पहले या पीछे अवश्य छोड़ना है। माता-पिता! कौन जानता है-पहले कौन जाएगा? पीछे कौन जाएगा? इसलिए माता-पिता! मैं चाहता हूं तुम्हारे द्वारा अनुज्ञात होकर मैं श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो जाऊं। १७७. माता-पिता क्षत्रियकुमार जमालि को विषय के प्रति अनुरक्त बनाने वाले बहुत आख्यान, प्रज्ञापन, संज्ञापन और विज्ञापन के द्वारा उसे आख्यात, प्रज्ञप्त, संज्ञप्त और विज्ञप्त ३७२
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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