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________________ भगवती सूत्र श. ९ : उ. ३३ : सू. १५०-१५५ के रोग और आतंक, परीषह और उपसर्ग इसका स्पर्श न करे, इस अभिसंधि से मैंने इसे पाला है। मेरे द्वारा इसका निस्तार होने पर यह परलोक में मेरे लिए हित, सुख, क्षम, निःश्रेयस और आनुगामिकता के लिए होगा, इसलिए देवानुप्रिय ! मैं आपके द्वारा ही प्रव्रजित होना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा ही मुण्डित होना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा ही शैक्ष बनना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा ही शिक्षा प्राप्त करना चाहता हूं तथा आपके द्वारा ही आचार, गोचर, विनय - वैनयिक - चरण - करण - यात्रा - मात्रा - मूलक धर्म का आख्यान चाहता हूं । १५१. श्रमण भगवान महावीर ऋषभदत्त ब्राह्मण को स्वयं ही प्रव्रजित करते हैं, स्वयं ही मुंडित करते हैं, स्वयं ही शैक्ष बनाते हैं, स्वयं ही शिक्षित करते हैं और स्वयं ही आचार - गोचर, विनय-वैनयिक-चरण-करण - यात्रा - मात्रा - मूलक धर्म का आख्यान करते हैं - देवानुप्रिय ! इस प्रकार चलना चाहिए, इस प्रकार ठहरना चाहिए, इस प्रकार बैठना चाहिए, इस प्रकार करवट लेनी चाहिए, इस प्रकार भोजन करना चाहिए, इस प्रकार बोलना चाहिए, इस प्रकार पूर्ण जागरूकता से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के प्रति संयम से रहना चाहिए। इस अर्थ में किंचित् भी प्रमाद नहीं करना चाहिए । वह ऋषभदत्त ब्राह्मण श्रमण भगवान् महावीर के इस प्रकार के धार्मिक उपदेश को सम्यक् प्रकार के स्वीकार करता है यावत् सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन करता है । अध्ययन कर अनेक चतुर्थ भक्त, षष्ठ भक्त, अष्टम-भक्त, दशम-भक्त, द्वादश-भक्त, अर्धमास और मासक्षपण - इस प्रकार विचित्र तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करता हुआ बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन करता है । पालन कर एक मास की संलेखना से अपने शरीर को कृश बना, अनशन द्वारा साठभक्त (भोजन के समय) का छेदन करता है, छेदन कर जिस प्रयोजन से नग्नभाव यावत् उस प्रयोजन की आराधना करता है। उसकी आराधना कर चरम उच्छ्वास - निःश्वास में सिद्ध, प्रशांत, मुक्त, परिनिर्वृत और सब दुःखों को क्षीण करने वाला हो जाता है। 1 १५२. देवानंदा ब्राह्मणी श्रमण भगवान महावीर के पास धर्म सुनकर, अवधारण कर, हृष्ट-तुष्ट होकर श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करती है, प्रदक्षिणा कर वंदन - नमस्कार करती है, वंदन - नमस्कार कर वह इस प्रकार बोली- भंते! यह ऐसा ही है, भंते! यह तथा (संवादिता पूर्ण ) - इस प्रकार जैसे ऋषभदत्त ने कहा वैसे ही यावत् धर्म का आख्यान चाहती हूं। १५३. श्रमण भगवान महावीर देवानंदा ब्राह्मणी को स्वयं ही प्रव्रजित करते हैं, प्रव्रजित कर स्वयं ही आर्या चंदना की आर्या शिष्या के रूप में सौंप देते हैं । १५४. आर्या चंदना आर्या देवानंदा ब्राह्मणी को स्वयं ही मुंडित करती हैं, स्वयं ही शैक्ष बनाती हैं । इस प्रकार ऋषभदत्त की भांति देवानंदा ब्राह्मणी आर्या चंदना के इस प्रकार के धार्मिक उपदेश को सम्यक् प्रकार से स्वीकार करती है, उसे भली-भांति जानकर वैसे ही संयमपूर्वक चलती है यावत् संयम से संयत रहती है । १५५. आर्या देवानंदा आर्या चंदना के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन करती है । अध्ययन कर अनेक चतुर्थ भक्त, षष्ठ भक्त, अष्टम भक्त, दशम - भक्त, अर्धमास और ३६६
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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