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________________ भगवती सूत्र श. ८ : उ. ६ : सू. २५१-२५५ ८. उसने आलोचना के संकल्प के साथ प्रस्थान किया, वह स्थविरों के पास पहुंच गया, उस समय वह स्वयं काल कर गया। भंते! इस अवस्था में क्या वह आराधक है अथवा विराधक? गौतम! वह आराधक है, विराधक नहीं। २५२. निर्ग्रन्थ ने बाह्य विचारभूमि (शौच भूमि) अथवा विहारभूमि के लिए निष्क्रमण कर किसी अकृत्यस्थान का प्रतिसेवन कर लिया, उसके मन में ऐसा संकल्प हुआ मैं यहीं इस अकृत्यस्थान की आलोचना करूं यहां भी पूर्ववत् आठ आलापक वक्तव्य है यावत् विराधक नहीं। २५३. निर्ग्रन्थ ने ग्रामानुग्राम विहार करते हुए किसी अकृत्यस्थान का प्रतिसेवन कर लिया, उसके मन में ऐसा संकल्प हुआ-मैं यहीं इस अकृत्यस्थान की आलोचना करूं, यहां भी पूर्ववत् आठ आलापक वक्तव्य हैं यावत् विराधक नहीं। २५४. निर्ग्रन्थिनी ने भिक्षा के लिए गृहपति के कुल में प्रवेश कर किसी अकृत्यस्थान का प्रतिसेवन कर लिया. उसके मन में ऐसा संकल्प हआ-मैं यहीं इस अकृत्यस्थान की आलचना करूं यावत् तपःकर्म स्वीकार करूं, तत्पश्चात् प्रवर्तिनी के पास जाकर आलोचना करूंगी यावत् तपःकर्म स्वीकार करूंगी। उसने आलोचना के संकल्प के साथ प्रस्थान किया। अभी प्रवर्तिनी के पास पहुंची नहीं, उससे पहले ही प्रवर्तिनी अमुख (बोलने में असमर्थ) हो गई। भंते! इस अवस्था में क्या वह आराधिका है अथवा विराधिका? गौतम! वह आराधिका है, विराधिका नहीं। उसने आलोचना के संकल्प के साथ प्रस्थान किया, जैसे निर्ग्रन्थ के तीन गमक कहे गए हैं वैसे ही निर्ग्रन्थिनी के तीन आलापक वक्तव्य हैं यावत् आराधिका है, विराधिका नहीं। २५५. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है वह आराधक है, विराधक नहीं? गौतम! जैसे कोई पुरुष भेड़ के लोम, हाथी के लोम, शणक के सूत्र, कपास के धागे, तृण के अग्रभाग को दो तीन अथवा संख्येय खण्डों में छिन्न कर अग्नि में डालता है। गौतम! क्या छिद्यमान को छिन्न-प्रक्षिप्यमान को प्रक्षिप्त और दह्यमान को दग्ध कहा जा सकता है? हां भगवन् ! छिद्यमान को छिन्न, प्रक्षिप्यमान को प्रक्षिप्त और दह्यमान को दग्ध कहा जा सकता है। जैसे कोई पुरुष अभिनव धौत और अभी-अभी वस्त्र-निर्माण-तंत्र से निकले हुए कपड़े को मंजिष्ठा-द्रोणी (रंगने के पात्र) में डालता है। गौतम! क्या उत्क्षिप्यमान को उत्क्षिप्त, प्रक्षिप्यमान को प्रक्षिप्त और रज्यमान को रक्त कहा जा सकता है? हां, भगवन् ! उत्क्षिप्यमान को उत्क्षिप्त, प्रक्षिप्यमान को प्रक्षिप्त और रज्यमान को रक्त कहा जा सकता है। २९९
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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