SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 326
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्र श. ७: उ. १० : सू. २१७-२२० कालोदायी का समाधानपूर्वक प्रव्रज्या का पद २१७. भगवान् गौतम ने उन अन्ययूथिकों से इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! हम अस्तित्व को नास्ति (नहीं है) ऐसा नहीं कहते, नास्तित्व को अस्ति (है) ऐसा नहीं कहते । देवानुप्रियो ! हम सर्वं अस्तित्व को 'अस्ति' (है) ऐसा कहते हैं, सर्वं नास्तित्व को 'नास्ति' (नहीं है) ऐसा कहते हैं। देवानुप्रियो ! तुम अपनी चेतना से स्वयं इसका प्रत्युपेक्षण करो - गौतम ने अन्ययूथिकों से इस प्रकार कहा, कहकर जहां गुणशिलक चैत्य हे, जहां श्रमण भगवान महावीर हैं, वहां आते हैं यावत् भक्त-पान दिखलाते हैं, दिखलाकर श्रमण भगवान महावीर को वन्दन - नमस्कार करते हैं, वन्दन- नमस्कार कर न अति निकट न अति दूर यावत् पर्युपासना करते 1 २१८. उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर महाकथाप्रतिपन्न विशाल परिषद् में प्रवचन कर रहे थे। कालोदायी उस प्रवचन सभा में आ गया, श्रमण भगवान् महावीर ने कालोदायी को संबोधित कर कहा - हे कालोदायी! किसी समय तुम लोग अपने-अपने आवासगृहों से निकल कर एकत्र हुए, एक स्थान पर बैठे। तुम लोगों में परस्पर इस प्रकार का समुल्लाप प्रारम्भ हुआ - श्रमण ज्ञातपुत्र पांच अस्तिकायों की प्रज्ञापना करते हैं, पूरी वक्तव्यता। यावत् क्या यह ऐसा है ? कालोदायी! क्या यह अर्थ संगत है ? हां, संगत है। कालोदायी! यह अर्थ सत्य है । मैं पञ्चास्तिकाय का प्रज्ञापन करता हूं, जैसे- धर्मास्तिकाय यावत् पुद्गलास्तिकाय । उनमें चार अस्तिकायों को मैं अजीवकाय बतलाता हूं, जैसे- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय । एक जीवास्तिकाय मैं अरूपीकाय जीवकाय बतलाता हूं। उनमें चार अस्तिकायों को मैं अरूपीकाय बतलाता हूं, जैसे- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय । एक पुद्गलास्तिकाय, को मैं रूपीकाय बतलाता हूं। २१९. कालोदायी ने श्रमण भगवान महावीर से इस प्रकार कहा - भन्ते ! इस धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय जो अरूपीकाय अजीवकाय हैं, में क्या कोई प्राणी रूक सकता है ? सो सकता है ? खड़ा रह सकता है ? बैठ सकता है ? करवट ले सकता है ? कालोदायी ! यह अर्थ संगत नहीं है। केवल एक पुद्गलास्तिकाय, जो रूपीकाय और अजीव काय है, कोई प्राणी रूक सकता है, सो सकता है, खड़ा रह सकता है, बैठ सकता है, करवट ले सकता है । २२०. भन्ते! इस पुद्गलास्तिकाय, जो रूपीकाय अजीवकाय है, में क्या जीवों के पाप-कर्म पाप-फल-विपाक-संयुक्त होते हैं? कालोदायी ! यह अर्थ संगत नहीं है। केवल एक जीवास्तिकाय, जो अरूपीकाय है, में जीवों के पाप-कर्म पाप-फल- विपाक - संयुक्त होते हैं। इस संवाद से कालोदायी संबुद्ध हो गया; वह श्रमण भगवान महावीर को वन्दन - नमस्कार करता है, वन्दन - नमस्कार कर इस प्रकार २५६
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy