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________________ भगवती सूत्र श. ७ : उ. ८ : सू. १५८-१६० वाला है; इसी प्रकार हाथी की अपेक्षा कुन्थु अल्पतर आहार, नीहार, उच्छ्वास, निःश्वास, ऋद्धि, महिमा और द्युति वाला है और कुन्थु की अपेक्षा हाथी महत्तर आहार, नीहार, उच्छ्वास, निःश्वास, ऋद्धि, महिमा और द्युति वाला है । १५९. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - हाथी का जीव और कुन्थु का जीव समान है ? गौतम ! जैसे कोई कूटाकार (शिखर के आकार वाली) शाला है। वह भीतर और बाहर दोनों ओर से लीपी हुई, गुप्त, गुप्त द्वार वाली, पवन -रहित और निवात गंभीर है। कोई पुरुष ज्योति अथवा दीप को लेकर उस कूटाकार शाला के चारों ओर से सघन, निचित्त, अन्तरऔर छिद्र-रहित किवाड़ों को बंद कर देता है और उस कूटाकार शाला के प्रायः मध्यभाग में उस प्रदीप को प्रदीप्त करता है । वह प्रदीप उस कूटाकार शाला के भीतरी भाग को अवभासित, उद्योतित, तप्त और प्रभासित करता है, बाहर के भाग में उसका प्रकाश नहीं फैलता । वह पुरुष उस प्रदीप को एक बड़े पिटक से ढांक देता है, तब वह प्रदीप उस बड़े पिटक के भीतरी भाग को अवभासित, उद्द्योतित, तप्त और प्रभासित करता है, उसके बाहर प्रका नहीं फैलता, न कूटाकार शाला में और न कूटाकार शाला के बाहर । इसी प्रकार - गोकिलिञ्ज, पिटारा, डालिया, आढक, अर्ध-आढक, प्रस्थ, अर्ध-प्रस्थ, कुडव, अर्ध-कुडव, चतुर्भागिका (कुडव का चौथा भाग), अष्ट-भागिका (कुडव का आठवां भाग), षोडशिका (कुडव का सोलहवां भाग), द्वात्रिंशिका (कुडव का बत्तीसवां भाग), चतुःषष्टिका (कुडव का चौसठवां भाग ) से ढांकने पर प्रदीप का प्रकाश उनके भीतर ही फैलता है, बाहर नहीं फैलता । वह पुरुष उस प्रदीप को दीप चंपक ( दीये का ढक्कन से ढांक देता है, तब वह प्रदीप दीपचंदक के भीतरी भाग को अवभासित, उद्योतित, तप्त और प्रभासित करता है, उसके बाहर प्रकाश नहीं फैलता, न चतुःषष्टिका के बाहर, न कूटाकार शाला में और न कूटाकार शाला के बाहर । गौतम ! इसी प्रकार जीव भी पूर्व कर्म के अनुसार जैसे शरीर का निर्माण करता है, उस शरीर को अपने असंख्य प्रदेशों में सचित्त बना देता है - वह शरीर छोटा हो अथवा बड़ा । गौतम ! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है- हाथी और कुंथु का जीव समान है। सुख-दुःख-पद १६०. भन्ते! नैरयिकों द्वारा जो पापकर्म कृत है, जो किया जा रहा है, जो किया जाएगा, क्या वह सब दुःख है ? जो पाप कर्म निर्जीर्ण है, क्या वह सुख है ? हां, गौतम ! नैरयिकों द्वारा जो पाप कर्म कृत है, जो किया जा रहा है, जो किया जाएगा, वह सब दुःख है । जो पाप कर्म निर्जीर्ण है, वह सुख है । इसी प्रकार वैमानिक तक के सभी दण्डकों की वक्तव्यता । २४६
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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