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________________ भगवती सूत्र श. ६ : उ. ९,१० : सू. १६७-१७१ गौतम! वह प्रज्ञापक-स्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर परिणत नहीं करता, स्व-स्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर परिणत करता है, इन दोनों से भिन्न किसी अन्य स्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर परिणत नहीं करता । इसी प्रकार कृष्ण वर्ण वाले पुद्गल को लाल वर्ण वाले पुद्गल के रूप में परिणत करता है । इसी प्रकार कृष्ण वर्ण वाले पुद्गल से यावत् शुक्ल वर्ण वाले पुद्गल तक के परिणमन की वक्तव्यता । इसी प्रकार नील वर्ण वाले पुद्गल से यावत् शुक्ल वर्ण वाले पुद्गल के परिणमन की वक्तव्यता। इसी प्रकार लोहित-वर्ण वाले पुद्गल से यावत् शुक्ल वर्ण वाले पुद्गल के परिणमन की वक्तव्यता । इसी प्रकार पीत वर्ण वाले पुद्गल से यावत् शुक्ल वर्ण वाले पुद्गल के परिणमन की वक्तव्यता । इसी प्रकार इस परिपाटी से गन्ध, रस और स्पर्श की परिणमन की वक्तव्यता । अविशुद्ध लेश्या आदि वाले देव का ज्ञान दर्शन - पद १६८. भन्ते! १. अविशुद्ध-लेश्या वाला देव असमवहत आत्मा के द्वारा अविशुद्ध-लेश्या वाले देव, देवी अथवा अन्य किसी को जानता देखता है ? यह अर्थ संगत नहीं है । इसी प्रकार - २. अविशुद्ध-लेश्या वाला देव असमवहत आत्मा के द्वारा विशुद्ध-लेश्या वाले देव को ३. अविशुद्ध-लेश्या वाला देव समवहत आत्मा के द्वारा अविशुद्ध-लेश्या वाले देव को ४. अविशुद्ध - लेश्या वाला देव समवहत आत्मा के द्वारा विशुद्ध-लेश्या वाले देव को ५. अविशुद्ध-लेश्या वाला देव समवहत- असमवहत आत्मा के द्वारा अविशुद्ध-लेश्या वाले देव को ६. अविशुद्ध-लेश्या वाला देव समवहत - असमवहत आत्मा के द्वारा विशुद्ध- लेश्या वाले देव को ७. विशुद्ध-लेश्या वाला देव असमवहत आत्मा के द्वारा अविशुद्ध- लेश्या वाले देव को ८. विशुद्ध-लेश्या वाला देव असमवहत आत्मा के द्वारा विशुद्ध-लेश्या वाले देव को नहीं जानता देखता । १६९. भंते! ९. विशुद्ध-लेश्या वाला देव समवहत आत्मा के द्वारा अविशुद्ध-लेश्या वाले देव को जानता देखता है ? हां, जानता - देखता है। इसी प्रकार - १०. विशुद्ध-लेश्या वाला देव समवहत आत्मा के द्वारा विशुद्ध-लेश्या वाले देव को ११. विशुद्ध-लेश्यावाला देव समवहत - असमवहत आत्मा के द्वारा अविशुद्ध-लेश्या वाले देव को १२. विशुद्ध-लेश्या वाला देव समवहत - असमवहत आत्मा के द्वारा विशुद्ध- लेश्या वाले देव को जानता - देखता है। १७०. भन्ते ! वह ऐसा ही है । भन्ते ! वह ऐसा ही है । दशवां उद्देश सुख-दुःख - उपदर्शन-पद १७१. भन्ते ! अन्ययूथिक इस प्रकार आख्यान करते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं - राजगृह नगर में २१९
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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