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________________ श. ६ : उ. ५ : सू. ७०-७५ पांचवां उद्देशक भगवती सूत्र तमस्काय-पद ७०. भन्ते ! तमस्काय किसे कहा जाता है ? क्या पृथ्वी को तमस्काय कहा जाता है ? क्या जल को तमस्काय कहा जाता है ? गौतम ! पृथ्वी को तमस्काय नहीं कहा जाता, जल को तमस्काय कहा जाता है । ७१. यह किस अपेक्षा से ? गौतम ! कुछेक शुभ (भास्वर) पृथ्वीकाय विवक्षित क्षेत्र के देश को प्रकाशित करता है और कुछेक पृथ्वीकाय विवक्षित क्षेत्र के देश को प्रकाशित नहीं करता । इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है - पृथ्वीकाय तमस्काय नहीं है । ७२. भन्ते ! तमस्काय कहां से उठता है ? और कहां समाप्त होता है ? गौतम ! जम्बुद्वीप से बाहर तिरछी दिशा में असंख्य द्वीप - समुद्रों को पार करने पर अरुणवर द्वीप के बहिर्वर्ती वेदिका के छोर से आगे जो अरुणोदय समुद्र है, उसमें बयालीस हजार योजन अवगाहन करने पर जल के ऊपर के सिरे से एक प्रदेश वाली (सममिति आकार वाली) श्रेणी निकली है। यहां से तमस्काय उठता है । वह सतरह सौ इक्कीस योजन ऊपर जाता है। उसके पश्चात् तिरछा फैलता हुआ सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार और माहेन्द्र-इन चारों कल्पों (स्वर्गलोकों) को घेर कर ऊपर ब्रह्मलोक कल्प के रिष्ट विमान के प्रस्तर तक पहुंच जाता है। यहां तमस्काय समाप्त होता है। ७३. भन्ते ! तमस्काय का संस्थान कैसा है ? 1 गौतम ! नीचे से शराव के तल का संस्थान है और ऊपर मुर्गे के पिंजरे का संस्थान है। ७४. भन्ते ! तमस्काय का विष्कम्भ (चौड़ाई) कितना और परिक्षेप (परिधि) कितना प्रज्ञप्त है ? गौतम ! तमस्काय दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे संख्यात योजन विस्तृत और असंख्यात - - योजन विस्तृत । जो संख्यात योजन विस्तृत है, उसका विष्कम्भ संख्यात - हजार योजन और उसका परिक्षेप असंख्यात - हजार योजन प्रज्ञप्त है। जो असंख्यात - योजन विस्तृत है, उसका विष्कम्भ असंख्यात - हजार योजन और उसका परिक्षेप असंख्यात - हजार योजन प्रज्ञप्त है। ७५. भन्ते ! तमस्काय कितना बड़ा प्रज्ञप्त है ? गौतम ! यह जम्बूद्वीप द्वीप सब द्वीपसमुद्रों के मध्य में अवस्थित है यावत् एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा और उसका परिक्षेप तीन लाख - सोलह हजार, दो-सौ सत्ताईस योजन, तीन कोस, एक सौ - अठाईस धनुष-और- साढ़ा - तेरह - अंगुल से कुछ अधिक प्रज्ञप्त है। कोई महान् ऋद्धि वाला यावत् महान् अनुभाव वाला देव 'यह रहा यह रहा' इस प्रकार कहकर सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीप में तीन बार चुटकी बजाने जितने समय में इक्कीस बार घूमकर शीघ्र ही आ जाता है, वह देव उस उत्कृष्ट त्वरित यावत् दिव्य देव गति से परिव्रजन करता हुआ - - परिव्रजन करता हुआ यावत् एक दिन, दो दिन, तीन दिन उत्कर्षतः छह मास तक परिव्रजन २०४
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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