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________________ (XXI) आचार्यश्री महाप्रज्ञजी हैं तथा सम्पादक साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभाजी हैं। उन्होंने अड़तीसवीं गाथा पर जो पाद-टिप्पण दिया है उसमें स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है-"प्रस्तुत गाथा के सामने भगवती का जो पाठ उद्धृत किया गया है, उसकी जोड़ के साथ संवादिता नहीं है। मुद्रित और हस्तलिखित अनेक प्रतियों में ऐसा ही पाठ है। किन्तु जयाचार्य द्वारा लिखित 'हेम भगवती' में जो पाठ है, वह इस गाथा का संवादी है।" उपर्युक्त विवेचन का सार यह है कि जहां भगवती के स्वीकृत पाठ में विधानादेश के संदर्भ में 'नो दावरजुम्मपदेसोगाढा, कलियोगपदेसोगाढा वि' पाठ है, वहां 'हेम भगवती' में 'दावरजुम्मपदेसोगाढा वि, नो कलियोगपदेसोगाढा' पाठ है। हमने भगवती भाष्य में इस समग्र प्रसंग की मीमांसा की है, जो इस प्रकार है-'त्रिकोण'-भगवती २५/५२ में बताए अनुसार ‘एक युग्म-प्रदेशिक घनत्र्यस्र संस्थान जघन्यतः चार-प्रदेशिक है, वह जघन्यतः आकाश के चार प्रदेशों का अवगाहन करता है। अतः वह कृतयुग्म प्रदेशावगाढ होता है। जो एक प्रतरत्र्यस संस्थान ओजस्-प्रदेशिक होता है वह जघन्यतः तीन-प्रदेशिक होता है तथा जघन्यतः आकाश के तीन प्रदेशों का अवगाहन करता है। इसी प्रकार एक घनत्र्यस संस्थान जो ओजस्-प्रदेशिक है वह जघन्यतः पैंतीस-प्रदेशिक होता है तथा जघन्यतः आकाश के पैंतीस प्रदेशों का अवगाहन करता है। तीन और पैंतीस में चार-चार का अपहार करने पर तीन शेष रहते हैं, अतः वह योज-प्रदेशावगाढ होता है। जो एक प्रतरत्र्यस संस्थान युग्म-प्रदेशिक होता है वह जघन्यतः छह-प्रदेशिक होता है तथा जघन्यतः आकाश के छह प्रदेशों का अवगाहन करता है। छह में चार का अपहार करने पर दो शेष रहते हैं, अतः वह द्वापर-युग्म-प्रदेशावगाढ होता है, किन्तु यस संस्थान में कल्योज-प्रदेशावगाढ नहीं होता। बहवचन में पृच्छा होने पर जब ओघादेश से मीमांसा करते हैं तब समुच्चय त्र्यससंस्थानों का एक साथ विचार किया जाता है। इन सबके सभी प्रदेशों का योग रूप में करने से स्वभावतः कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ ही होते हैं क्योंकि चार-चार का अपहार करने पर चार शेष रहते हैं। इसलिए ओघादेश से बहुवचन में व्यस्र-संस्थान केवल कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ ही होते हैं। शेष तीन भंग नहीं होते। - बहुवचन में विधानादेश से एक-एक संस्थान पर पृथक्-पृथक् विचार किया जाता है। यहां पर भगवती के मूल पाठ में कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ़, योज-प्रदेशावगाढ तथा कल्योज-प्रदेशावगाढ का विधान है किन्तु द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ का निषेध है। भगवती-जोड़ में कृतयुग्म, त्र्योज और द्वापरयुग्म का विधान है किन्तु कल्योज का निषेध है। (इस विषय में 'हेम भगवती' के सन्दर्भ में हमने ऊपर चर्चा की है।) ___ यह विमर्शनीय है, क्योंकि भगवती २५/६३ में द्वापरयुग्म का विधान है, कल्योज का निषेध है। फिर विधानादेश में द्वापरयुग्म का निषेध और कल्योज का विधान कैसे किया १. (क) भगवती-वृत्ति २५/६३। (ख) भगवती-जोड़ ढा. ४३७, गा. २७ ।
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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