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________________ भगवती सूत्र श. ३ : उ. १ : सू. ३३ मन में यह इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ - इस समय मेरे पूर्वकृत पुरातन सुआचरित, सुपराक्रान्त, शुभ और कल्याणकारी कर्मों का कल्याणकारी फल मिल रहा है, जिससे मैं चांदी, सोना, धन, धान्य, पुत्र, पशु तथा विपुल वैभव, कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, मेनसिल, प्रवाल, लाल रत्न (पद्मरागमणि) और श्रेष्ठ सार—इन वैभवशाली द्रव्यों से अतीव - अतीव वृद्धि कर रहा हूं, तो क्या मेरे पूर्वकृत पुरातन सुआचरित, सुपराक्रान्त, शुभ और कल्याणकारी कर्म एकान्ततः क्षीण हो रहे हैं और मैं उन्हें देखता हुआ विहरण कर रहा हूं ? इसलिए जब तक मैं चांदी से वृद्धि कर रहा हूं यावत् इन वैभवशाली द्रव्यों से अतीव - अतीव वृद्धि कर रहा हूं और जब तक मेरे मित्र, ज्ञाति, कुटुम्बी, स्वजन, संबंधी और परिजन मेरा आदर करते हैं, मुझे स्वामी के रूप में स्वीकारते हैं, सत्कार-सम्मान देते हैं, कल्याणकारी, मंगलकारी देवरूप और चित्ताह्लादक मानकर विनयपूर्वक पर्युपासना करते हैं तब तक मेरे लिए यह श्रेय है कि मैं कल उषाकाल के पौ फटने पर यावत् (भग. २.६६) सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर मैं स्वयं काष्ठमय पात्र का निर्माण कर, विपुल भोजन, पेय, खाद्य और स्वाद्य पदार्थ तैयार करवा कर मित्र, ज्ञाति, कुटुम्बी, स्वजन, संबंधी और परिजनों को आमन्त्रित कर उन्हें विपुल भोजन पेय, खाद्य, स्वाद्य पदार्थों से तथा वस्त्र, सुगन्धित द्रव्य, माला और अलंकारों से सत्कृत- सम्मानित कर उन्हीं मित्रों, ज्ञातियों, कुटुम्बी-जनों, स्वजनों, संबंधियों और परिजनों के सामने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित कर उन मित्र, ज्ञाति, कुटुम्बी, स्वजन, संबंधी परिजनों और ज्येष्ठ पुत्र को पूछ कर, स्वयं काष्ठमय पात्र ग्रहण कर मुण्ड हो कर प्राणामा प्रव्रज्या से प्रव्रजित होना मेरे लिए श्रेयस्कर है। प्रव्रजित हो कर मैं इस आकार वाला यह अभिग्रह स्वीकार करूंगा मैं जीवन भर निरन्तर बेले-बेले (दो-दो दिन के उपवास) की तपःसाधना करूंगा। मैं आतापना - भूमि में दोनों भुजाएं ऊपर उठा कर सूर्य के सामने आतापना लेता हुआ विहार करूंगा । बेले के पारणे में मैं आतापना - भूमि से उतर कर स्वयं काष्ठमय पात्र ग्रहण कर ताम्रलिप्ति नगरी के ऊंच, नीच और मध्यम कुलों में सामुदानिक भिक्षाचारी के लिए पर्यटन कर केवल चावल ग्रहण कर उसे इक्कीस बार पानी से धो कर फिर आहार करूंगा। इस प्रकार सोच कर वह संप्रेक्षा करता है, संप्रेक्षा कर उषाकाल में पौ फटने पर तेज से प्रज्वलित सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर स्वयमेव काष्ठमय पात्र का निर्माण करता है, निर्माण कर विपुल भोजन, पेय, खाद्य, स्वाद्य पदार्थ पकवाता है, पकवाने के बाद वह स्नान, बलिकर्म (पूजा), कौतुक (तिलक आदि ) इष्ट नमस्कार रूप मंगल और प्रायश्चित्त करके शुद्ध प्रावेश्य (सभा में प्रवेशोचित) मांगलिक वस्त्र विधिवत् पहन कर, अल्पभार और बहुमूल्य वाले आभूषणों से शरीर को सजा कर भोजन की बेला में भोजन मंडप में सुखासन की मुद्रा में बैठा हुआ वह उन मित्र, ज्ञाति, कुटुम्बी, स्वजन, संबंधी और परिजनों के साथ उस विपुल भोजन, पेय, खाद्य और स्वाद्य का आस्वाद लेता हुआ विशिष्ट स्वाद लेता हुआ, बांटता हुआ और परिभोग करता हुआ विहरण करता है। उसने भोजन कर आचमन किया, आचमन कर वह स्वच्छ और परम शुचीभूत (सर्वथा साफ-सुथरा ) हो गया । फिर वर अपने बैठने के स्थान पर आया। वहां वह उन मित्रों, ज्ञातियों, कुटुम्बी-जनों, स्वजनों, संबंधियों और परिजनों को विपुल १०६
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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