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________________ भगवती सूत्र श. ३ : उ. १ : सू. २१-२४ २१. भन्ते! यदि देवेन्द्र देवराज ईशान इतनी महान् ऋद्धि वाला यावत् इतनी विक्रिया करने में समर्थ है, तो आपका अंतेवासी कुरुदत्त - पुत्र नामक अनगार जो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था। वह निरन्तर तेला-तेला (तीन-तीन दिन का उपवास) और पारणे में आचाम्ल की स्वीकृति रूप तपः-साधना करता था । वह आतापना - भूमी में दोनों भुजाएं ऊपर उठा कर सूर्य के सामने आतापना लेता था । उसने पूरे छह मास तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर पन्द्रह दिन की संलेखना (तपस्या) से अपने आपको कृश बनाया, अनशन के द्वारा तीस भक्तों का छेदन किया, वह आलोचना और प्रतिक्रमण कर समाधिपूर्ण दशा में काल - मास में काल को प्राप्त हो गया । वइ ईशान कल्प में अपने विमान में उपपात सभा के देवदूष्य से आच्छन्न देवशयनीय में अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी अवगाहना से देवेन्द्र देवराज ईशान के सामानिक देवरूप में उत्पन्न हुआ । तिष्यक के संबंध में जो वक्तव्यता है, वही समग्र रूप से कुरुदत्त - पुत्र के प्रसंग ज्ञातव्य है, केवल इतना अन्तर है कि वह कुछ अधिक सम्पूर्ण दो जम्बूद्वीप द्वीपों को आकीर्ण कर सकता है। शेष वक्तव्यता उसी प्रकार है। इसी प्रकार सामानिक, तावत्रिंशक, लोकपाल और पटरानियों के विषय में ज्ञातव्य यावत् गौतम ! देवेन्द्र देवराज ईशान की प्रत्येक पटरानी देवी की विक्रिया-शक्ति का यह इतना विषय केवल विषय की दृष्टि से प्रतिपादित है । किसी भी पटरानी ने क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की, न करती है और न करेगी। २२. इसी प्रकार सनत्कुमार के सबंध में ज्ञातव्य है केवल इतना अन्तर है - वह चार सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीपों को आकीर्ण कर सकता है । और दूसरी बार वह तिरछे लोक के असंख्य द्वीप समुद्रों को आकीर्ण कर सकता है। इसी प्रकार सामानिक, तावत्रिंशक, लोकपाल और पटरानियां ये सब ज्ञातव्य हैं। ये सब असंख्येय द्वीपसमुद्रों में विक्रिया करते हैं । सनत्कुमार से लेकर ऊपर के सभी लोकपाल असंख्य द्वीपसमुद्रों में विक्रिया करते हैं । २३. इसी प्रकार माहेन्द्र देवलोक के संबंध में ज्ञातव्य है । केवल इतना अन्तर है कि कुछ अधिक चार सम्पूर्ण जम्बद्वीप द्वीपों से अधिक क्षेत्र आकीर्ण कर सकता है । इसी प्रकार ब्रह्मलोक के संबंध में ज्ञातव्य है, केवल इतना अंतर है कि वह आठ सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीपों को आकीर्ण कर सकता है। इसी प्रकार लान्तक - कुछ अधिक आठ । महाशुक्र - सोलह, सहस्रार – कुछ अधिक सोलह । प्राणत-बत्तीस | अच्युत-कुछ अधिक बत्तीस, सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीपों को आकीर्ण कर सकता है। शेष सब उसी प्रकार है । २४. भन्ते! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। इस प्रकार तृतीय गौतम वायुभूति अनगार श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार करते हैं यावत् संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहरण कर रहे हैं। १०४
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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