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________________ ( XIV ) आर्ष वचन आगम के गंभीर अनुशीलन से परिपुष्ट होता है । शंका, कांक्षा, विचिकित्सा आदि रूप विष का शोधन एवं प्रतिकार करने में आगम से प्राप्त तत्त्वज्ञान रामबाण औषध के तुल्य कार्य करता है । शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य (सत्यनिष्ठा) – सम्यक्त्व के इन पांच लक्षणों की पुष्टि में भी आगम का स्वाध्याय सशक्त निमित्त है । आभ्यन्तर तप के रूप में स्वाध्याय की गणना इसीलिए की गई है कि वाचना, प्रच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा के रूप में पञ्चविध स्वाध्याय का निरूपण मुख्यतः आगम को लक्षित कर किया गया है। सूत्र आगम, अर्थ-आगम और तदुभय आगम-इन तीनों का स्वाध्याय ही असली स्वाध्याय है। स्वाध्याय से जीव क्या प्राप्त करता है ? ' - इस प्रश्न के उत्तर में आगम बताता है - 'स्वाध्याय से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है ।"" जैन दर्शन का मौलिक, गम्भीर एवं तलस्पर्शी अध्ययन करने के लिए जैन आगमों का अनुशीलन अपेक्षित है। समस्या यह है कि अनेक विद्वान एवं जिज्ञासु पाठक ऐसे हैं जिनके लिए जैन आगमों का अनुशीलन कुछ दुरूह है । इसका एक कारण यह है कि जैन आगम मूलतः प्राकृत भाषा में हैं । इस दृष्टि से जैन आगमों का हिन्दी संस्करण इन सबके लिए जैन दर्शन के अनुशीलन का सुगम माध्यम बन सकता है। इस प्रकार जैन आगमों के हिन्दी संस्करणों का जैन दर्शन के व्यापक प्रसार के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण योगदान हो सकता है। जैन धर्म के श्वेताम्बर तेरापंथ सम्प्रदाय के नवम अधिशास्ता गणाधिपति आचार्यश्री तुलसी के वाचना - प्रमुखत्व में जैन आगमों की वाचना का महायज्ञ सन् १९५५ में प्रारम्भ हुआ । इनके मूल पाठ के संस्करण के सम्पादक दशम अधिशास्ता आचार्यश्री महाप्रज्ञ रहे । विस्तृत विवेचन के साथ आगमों के मूल प्राकृत पाठ, संस्कृत छायानुवाद तथा हिन्दी भावानुवाद के संस्करणों का कार्य प्रधान सम्पादक एवं विवेचक आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के निदेशन में हुआ तथा वर्तमान में आचार्यश्री महाश्रमणजी के निदेशन में चल रहा है। आगमकार्य के विषय पर प्रकाश डालते हुए मुनि नथमल ( आचार्यश्री महाप्रज्ञ) लिखते हैं " जैन परम्परा में वाचना का इतिहास बहुत प्राचीन है। आज से १५०० वर्ष पूर्व तक आगम की चार वाचनाएं हो चुकी हैं। देवर्द्धिगणी के बाद कोई सुनियोजित आगम-वाचना नहीं हुई। उनके वाचना-काल में जो आगम लिखे गए थे, वे इस लम्बी अवधि में बहुत ही अव्यवस्थित हो गए हैं। उनकी पुनर्व्यवस्था के लिए आज फिर एक सुनियोजित वाचना की अपेक्षा थी। आचार्यश्री तुलसी ने सुनियोजित सामूहिक वाचना के लिए प्रयत्न भी किया था, परन्तु वह पूर्ण नहीं हो सका । अन्ततः हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि हमारी वाचना अनुसन्धानपूर्ण, गवेषणापूर्ण तटस्थदृष्टि - समन्वित तथा सपरिश्रम होगी तो वह अपने आप सामूहिक हो जाएगी। इसी निर्णय के आधार पर हमारा यह आगम-वाचना का कार्य प्रारम्भ हुआ।"२ १. २. उत्तरज्झयणाणि, २९ / १९ । अंगसुत्ताणि, भाग -१, मुनि नथमल (आचार्य सम्पादकीय, पृ. २८ । महाप्रज्ञ) द्वारा लिखित
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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