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________________ भगवती सूत्र श. २ : उ. ५ : सू. ९७-१०५ उत्तरासंग करना ४. दृष्टिपात होते ही बद्धाञ्जलि होना ५. मन को एकाग्र करना) जहां स्थविर भगवान हैं वहां आते हैं। आकर दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा करते हैं। प्रदक्षिणा कर वन्दन - नमस्कार करते हैं । वन्दन नमस्कार कर तीन प्रकार की पर्युपासना के द्वारा पर्युपासना करते हैं । ९८. वे स्थविर भगवान् उन श्रमणोपासकों को उस विशालतम ऐश्वर्यशाली परिषद् में चातुर्याम धर्म का उपदेश करते हैं, जैसे सर्व-प्राणातिपात से विरत होना, सर्व - मृषावाद से विरत होना, सर्व - अदत्तादान से विरत होना, सर्व-बाह्य-आदान ( परिग्रह ) से विरत होना । ९९. वे श्रमणोपासक भगवान् स्थविरों के पास धर्म सुनकर, अवधारण कर, हृष्ट-तुष्ट चित्त वाले हो गए यावत् हर्ष से उनका हृदय विकस्वर हो गया। वे दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा करते हैं, प्रदक्षिणा कर इस प्रकार बोले- भन्ते ! संयम का फल क्या है ? तपस्या का फल क्या है ? १००. भगवान् स्थविर उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार बोले-आर्यो ! संयम का फल है अनास्रव और तप का फल है व्यवदान - निर्जरा । १०१. वे श्रमणोपासक भगवान् स्थविरों से इस प्रकार बोले- 'भन्ते ! यदि संयम का फल अनास्रव है और तप का फल व्यवदान है, तो देव देवलोक में किस कारण से उपपन्न होते हैं ? १०२. कालिकपुत्र नामक स्थविर ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा- आर्यो ! पूर्वकृत तप से देव देवलोक में उपपन्न होते हैं। मेहिल (अथवा मैथिल) नामक स्थविर ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा- आर्यो ! पूर्वकृत संयम से देव देवलोक में उपपन्न होते हैं । आनन्दरक्षित नामक स्थविर ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा- आर्यो ! कर्म की सत्ता से देव देवलोक में उपपन्न होते हैं । काश्यप नामक स्थविर ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा- आर्यो ! आसक्ति के कारण देव देवलोक में उपपन्न होते हैं । आर्यो ! पूर्वकृत तप, पूर्वकृत संयम, कर्म की सत्ता और आसक्ति के कारण देव देवलोक में उपपन्न होते हैं। यह अर्थ सत्य हे । अहंमानिता के कारण ऐसा नहीं कहा जा रहा है। १०३. वे श्रमणोपासक भगवान् स्थविरों से ये इस प्रकार उत्तर सुनकर हृष्ट-तुष्ट हो भगवान् स्थविरों को वन्दन-नमस्कार करते हैं, प्रश्न पूछते हैं, अर्थ ग्रहण करते हैं, ग्रहण कर जिस दिशा से आए, उसी दिशा में लौट जाते हैं। १०४. किसी दिन वे स्थविर तुंगिका नगरी के पुष्पवतिक चैत्य से लौट जाते हैं, बाह्य जनपदों में विहार करते हैं । १०५. उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। वहां भगवान् महावीर पधारे ८६
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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