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________________ श. २ : उ. १ : सू. ६८-७१ भगवती सूत्र कर डाभ का बिछौना बिछाता है, बिछा कर पूर्व दिशा की ओर मुंह कर पर्यंक-आसन में बैठ दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट वाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर, मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार बोलता हैनमस्कार हो अर्हत् भगवान् को यावत् जो सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हो चुके हैं। नमस्कार हो श्रमण भगवान् महावीर को यावत् जो सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त करने के इच्छुक हैं। 'यहां बैठा हुआ मैं वहां विराजित भगवान् को वन्दन करता हूं। वहां विराजित भगवान् यहां स्थित मुझे देखें' ऐसा सोचकर वह वन्दन-नमस्कार करता है, वन्दन-नमस्कार कर वह इस प्रकार बोलता है-मैंने पहले भी श्रमण भगवान महावीर के पास जीवनभर के लिए सर्व प्राणातिपात यावत् मिथ्या-दर्शन-शल्य का प्रत्याख्यान किया था। इस समय भी मैं श्रमण भगवान् महावीर के पास जीवन भर के लिए सर्व प्राणातिपात यावत् मिथ्या-दर्शन-शल्य का प्रत्याख्यान करता हूं। मैं जीवन भर के लिए सर्व अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य-इस चार प्रकार के आहार का प्रत्याख्यान करता हूं। यद्यपि मेरा यह शरीर मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय यावत् वात- , पित्त- , श्लेष्म- और सन्निपात-जनित विविध प्रकार के रोग और आतंक तथा परीषह और उपसर्ग इसका स्पर्श न करें, इसलिए इसको भी मैं अन्तिम उच्छ्वास-निःश्वास तक छोड़ता हूं। ऐसा कर वह संलेखना की आराधना में लीन होकर भक्तपानका प्रत्याख्यान कर प्रायोपगमन अनशन की अवस्था में मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ रह रहा है। ६९. वह स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान् महावीर के तथारूप स्थविरों के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन कर प्रायः परिपूर्ण बारह वर्ष के श्रामण्य-पर्याय का पालन कर एक मास की संलेखना से अपने आप (शरीर) को कृश बना, अनशन के द्वारा साठ भक्त (भोजन के समय) का छेदन कर आलोचना और प्रतिक्रमण कर समाधिपूर्ण दशा में क्रमशः दिवंगत हो गया। ७०. वे स्थविर भगवान् स्कन्दक अनगार को दिवंगत जानकर परिनिर्वाणहेतुक कायोत्सर्ग करते हैं, कायोत्सर्ग कर उसके पात्र और चीवरों को लेते हैं, लेकर धीमे-धीमे विपुल पर्वत से नीचे उतरते हैं, नीचे उतर कर जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं वहां आते हैं, आकर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं, वन्दन-नमस्कार कर वे इस प्रकार कहते हैं-देवानुप्रिय का अन्तेवासी स्कन्दक नाम का अनगार, जो प्रकृति से भद्र और प्रकृति से उपशान्त था, जिसकी प्रकृति में क्रोध, मान, माया, लोभ प्रतनु (पतले) थे, जो मृदु-मार्दव से सम्पन्न, आत्मलीन और विनीत था, उसने देवानुप्रिय की आज्ञा पाकर स्वयं ही पांच महाव्रतों की आरोहणा की, श्रमण-श्रमणियों से क्षमायाचना की, हमारे साथ धीरे-धीरे विपुल पर्वत पर चढ़ा यावत् एक मास की संलेखना से अपने आप को कृश बनाया, अनशन के द्वारा साठ भक्तों का छेदन किया, वह आलोचना और प्रतिक्रमण कर समाधिपूर्ण दशा में क्रमशः दिवंगत हो गया। ये प्रस्तुत हैं उसके साधु-जीवन के उपकरण। ७१. 'भन्ते!' इस सम्बोधन से संबोधित कर भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर को वन्दननमस्कार करते हैं, वन्दन-नमस्कार कर इस प्रकार कहते हैं-देवानुप्रिय का शिष्य स्कन्दक नाम का अनगार कालमास में काल (मृत्यु) को प्राप्त कर कहां गया है? कहां उपपन्न हुआ ८०
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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