SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भरत चरित ३०१ ४. पूर्व में चौदह रत्न प्रकट हुए थे। अब नौ निधान प्रकट हुए हैं। भरतजी के प्रबल पुण्य से दिनोंदिन अधिक से अधिक ऋद्धि पैदा होती है। ५. ये चौदह रत्न तथा नव निधान चक्रवर्ती के सिवाय तीर्थंकर तथा वासुदेव के पास भी नहीं होते। ये हर किसी को आसानी से प्राप्त नहीं होते। ६. अश्वरथ अति मनोहर है। वह देव-विमान की तरह लगता है। वह पवनवेग जैसा शीघ्र चलता है। वह पुण्ययोग से प्राप्त हुआ है। ७. भरतक्षेत्र के सभी देवी-देवताओं से अपनी आज्ञा स्वीकार करवाकर उनसे उपहार प्राप्त कर उन्हें अपना सेवक स्थापित किया है। ८. पूर्व, पश्चिम और दक्षिण में लवण समुद्र तक तथा उत्तर में चूल हिमवंत पूर्वत तक सब जगह इनकी आज्ञा प्रवर्तती है। ९. भरत के हाथी-घोड़े तथा रथों की संख्या चौरासी-चौरासी लाख है। छियानबे करोड़ पैदल सैनिक हैं । जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति में इसकी साक्षी है। १०. मनुष्य तो कहीं रहे, देवता भी इनकी सेवा करते हैं। देवता स्वयं भरतजी का कार्य करते हैं। ११. पूरे भरतक्षेत्र में भरतजी सरीखा दूसरा कोई नहीं है। वे इंद्र के समान दीप्तिमान् हैं। उन्हें देखने से ही आनंद होता है। १२. किसी के सामने नहीं झुकने वाले भूपतियों को भी इन्होंने वश में किया है। इनके सामने कोई सिर ऊंचा नहीं कर सकता। पूरे भरतक्षेत्र में इनका एक भी शत्रु नहीं रहा। १३. सूर्य के सरीखा चक्ररत्न सहस्र देवताओं के साथ आकाश में चलता है। वाद्ययंत्रों की धुंकार उठती है।
SR No.032414
Book TitleAcharya Bhikshu Aakhyan Sahitya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Ganadhipati, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Sukhlal Muni, Kirtikumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy