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________________ अ... आ... उ... इ... ऊ... ऋ... ऋ... 'ऋ-लु' स्वरों के उच्चारण के विषय में प्रथम भाग में जो सूचना दी हुई है, उसको स्मरण रखना चाहिए। उत्तर भारत के लोग इनका उच्चारण 'री' तथा 'परी' ऐसा करते हैं, यह बहुत ही अशुद्ध है ! कभी ऐसा उच्चारण नहीं करना चाहिए। 'री' में 'र ई' ऐसे दो वर्ण मूर्धा और तालु स्थान के हैं। 'ऋ' यह केवल मूर्धास्थान का शुद्ध स्वर है। केवल मूर्धा स्थान के शुद्ध स्वर का उच्चारण मूर्धा और तालु स्थान दो वर्ण मिलाकर करना अशुद्ध है और उच्चारण की दृष्टि से बड़ी भारी गलती है। ऋ' का उच्चारण-धर्म शब्द बहुत लम्बा बोला जाए और ध और म के बीच का रकार बहुत बार बोला जाए (समझने के लिए) तो उसमें से एक रकार के आधे के बराबर है। इस प्रकार जो 'ऋ' बोला जा सकता है, वह एक जैसा लम्बा बोला जा सकता है। छोटे लड़के आनन्द से अपनी जिह्वा को हिलाकर इस ऋकार को बोलते हैं। जो लोग इसका उच्चारण 'री' करते हैं उनको ध्यान देना चाहिए कि 'री' लम्बी बोलने पर केवल 'ई' लम्बी रहती है। जोकि तालु स्थान की है। इस कारण 'ऋ' का यह 'री' उच्चारण सर्वथैव अशुद्ध है। लकार का 'परी' उच्चारण भी उक्त कारणों से अशुद्ध है। उत्तरीय लोगों को चाहिए कि वे इन दो स्वरों का शुद्ध उच्चारण करें। अस्तु। पूर्व स्थान में कहा है कि जिनका लम्बा उच्चारण हो सकता है, वे स्वर कहलाते हैं। गवैये लोग स्वरों को ही अलाप सकते हैं, व्यञ्जनों को नहीं, क्योंकि व्यञ्जनों का लम्बा उच्चारण नहीं होता। इन पांच स्वरों में भी 'अ इ उ' ये तीन स्वर अखण्डित, पूर्ण हैं। और 'ऋ, लु' ये खण्डित स्वर हैं। पाठकगण इनके उच्चारण की ओर ध्यान देंगे तो उनको पता लगेगा कि इनको खण्डित तथा अखण्डित क्यों कहते हैं। जिनका उच्चारण एक-रस नहीं होता, उनको खण्डित बोलते हैं। इन पांच स्वरों से व्यञ्जनों की उत्पत्ति हुई है, क्रमशः मूल स्वर इनको दबाकर उच्चारण करते-करते एकदम उच्चारण बन्द करने से क्रमशः निम्न व्यञ्जन बनते हैं। ह य र ल व इनका मुख से उच्चारण होने के समय हवा के लिए कोई रुकावट नहीं होती।
SR No.032413
Book TitleSanskrit Swayam Shikshak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShripad Damodar Satvalekar
PublisherRajpal and Sons
Publication Year2010
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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