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________________ समत्व की साधना (१) तुमने (भगवान ऋषभ ने) अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों को समभाव से सहन कर विविध प्रकार का तप तपा । भेदविज्ञान के द्वारा आत्मा और शरीर को भिन्न समझकर वे शुक्लध्यान में लीन हो गए। तुम संवेग रूप सरोवर में शांतरस रूप जल में तल्लीन होकर डुबकियां लगाते रहे । निन्दा - स्तुति और सुख-दुःख इन द्वन्द्वों में सम रहना ही साधना का पथ है। इस तथ्य को तुमने भली-भांति समझ लिया। GEG अनुकूल प्रतिकूल सम सही, तप विविध तपंदा । चेतन तन भिन्न लेखवी, ध्यान शुकल ध्यावंदा । संवेग - सरवर झूलता, उपशम-रस लीना । निंदा - स्तुति सुख-दुःख में, समभाव सुचीना || चौबीसी १.२,४ ११ मार्च २००६ © Jar Jar कलक ६० GOOG
SR No.032412
Book TitleJain Yogki Varnmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya, Vishrutvibhashreeji
PublisherJain Vishva Bharati Prakashan
Publication Year2007
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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