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आत्मा का स्वरूप
'घी का घड़ा' इस व्यपदेश का मुख्य आधार उपचार है। वास्तव में घड़ा मिट्टी का है। ठीक इसी प्रकार जीव के मनुष्य, तिर्यंच, देव आदि भेद किए जाते हैं। यह व्यवहार मात्र है। जीव चैतन्यस्वरूप है। वह शरीर और शरीरजनित उपाधियों से भिन्न है। वह अनादि, अनंत, अचल, स्वसंवेद्य और चैतन्यस्वरूप है।
घृतकुम्भाभिधानेऽपि कुम्भो घृतमयो न चेत् । जीवो वर्णादिमज्जीवो जल्पनेऽपि न तन्मयः ॥ अनाद्यनन्तमचलं
स्वसंवेद्यमबाधितम् ।
जीवः स्वयं तु
चैतन्यमुच्चैश्चकचकायते ॥
समयसार २.८, ६
२१ फरवरी
२००६
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