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________________ इन्द्रिय चेतना : विषय और विकार ( ३ ) जो रूप में द्वेष रखता है, वह उत्तरोत्तर अनेक दुःखों को प्राप्त होता है। प्रद्वेष-युक्त चित्त वाला व्यक्ति कर्म का बन्ध करता है। वही परिणाम-काल में उसके लिए दुःख का हेतु बनता है। रूप से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त बन जाता है। जैसे कमलिनी का पत्र जल से लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह संसार में रहकर अनेक दुःखों की परम्परा से लिप्त नहीं होता। एमेव रूवम्मि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ । पट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे । रूवे विरतो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पए भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥ उत्तरज्झयणाणि ३२.३३,३४ GOOG १६ अक्टूबर २००६ ३१८ २० Gre ĐÊM ĐÊM Đ
SR No.032412
Book TitleJain Yogki Varnmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya, Vishrutvibhashreeji
PublisherJain Vishva Bharati Prakashan
Publication Year2007
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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