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________________ इन्द्रिय चेतना : विषय और विकार ( २ ) जो रूप में अतृप्त होता है और उसके परिग्रहण में आसक्त - उपसक्त होता है, उसे संतुष्टि नहीं मिलती। वह असंतुष्टि के दोष से दुःखी और लोभग्रस्त होकर दूसरों की वस्तुएं चुरा लेता है। फल वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और रूप तथा परिग्रह में अतृप्त होता है । अतृप्ति-दोष के कारण उसके मायामृषा की वृद्धि होती है । माया - मृषा का प्रयोग करने पर भी वह दुःख से मुक्त नहीं होता। रूवे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुट्ठि । अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥ तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, रूवे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुसं वड्डइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ।। उत्तरज्झयणाणि ३२.२६,३० १८ अक्टूबर २००६ ३१७ DGD C
SR No.032412
Book TitleJain Yogki Varnmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya, Vishrutvibhashreeji
PublisherJain Vishva Bharati Prakashan
Publication Year2007
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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