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धर्म अनुप्रेक्षा धर्म आत्मा का सहज परिणमन है। निमित्त मिलता है, क्रोध उभर आता है किन्तु कोई भी आदमी प्रतिक्षण क्रोध नहीं करता और कर भी नहीं सकता। क्षमा प्रतिक्षण की जा सकती है क्योंकि वह उसका सहज रूप है।
ऋजुता हर क्षण हो सकती है किन्तु माया का आचरण हर क्षण नहीं होता। धर्म की भावना का अर्थ है-आत्मा के स्वाभाविक रूप की खोज करना। इसमें इन्द्रियां अन्तर्मुखी हो जाती हैं और मन अपने अस्तित्व के मूल प्रवाह में विलीन हो जाता है।
१३ जून २००६