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अनित्य अनुप्रेक्षा
जितने संयोग हैं, उनका अन्त वियोग में होता है - संयोगाः विप्रयोगाऽन्ताः- फिर भी चिर सम्पर्क के कारण मनुष्य संयोग को शाश्वत मान बैठता है और जब उसका वियोग होता है, तब वह उसके लिए आकुल हो उठता है। यह आकुलता, दुःख और ताप वस्तु के वियोग से नहीं होता किन्तु उसके संयोग के प्रति शाश्वत की भावना होने से होता है ।
अनित्य अनुप्रेक्षा का प्रयोजन चित्त में (संयोग और वस्तु की नश्वरता के प्रति ) अशाश्वतता की भावना को पुष्ट बनाए रखता है। इस अनुप्रेक्षा का अभ्यासी साधक वियोग को नहीं रोक सकता किन्तु उससे प्रवाहित होने वाली दुःख की धारा को रोक सकता है।
GDC
५ जून
२००६
१८२