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________________ पाठ ७४ : शीलादि प्रत्यय (१) शब्दसंग्रह निराकरिष्णुः (निराकरण करने वाला)। भविष्णुः (होने वाला) । सहिष्णुः (सहन करने वाला)। रोचिष्णुः (रुचिवाला, कांतिवाला)। वर्धिष्णुः (बढने वाला) । चरिष्णुः (चलने वाला, खाने वाला)। प्रजनिष्णुः (उत्पन्न होने वाला) । अपत्रपिष्णुः (लज्जा करने वाला) । ग्लास्नुः, म्लास्नुः (खिन्न रहने वाला) । स्थास्नुः (स्थिर रहने वाला, स्थायी)। पक्ष्णुः (पकाने वाला)। परिमाणुः (साफ करने वाला)। गृध्नुः (आसक्त होने वाला) । क्षिप्णुः (फेंकने वाला) । जिष्णुः (जीतने वाला) । श्रमी (श्रम करने वाला) । प्रमादी (प्रमाद करने वाला) । दमी (दमन करने वाला) । भोगी भोगने वाला) । त्यागी (छोडने वाला) । द्रोही (द्रोह करने वाला) । दोही (दुहने वाला) । संरोधी (रोकने वाला) । विस्र सी (हिंसा करने वाला)। विदाही (जलाने वाला) । अनुवादी (अनुवाद करने वाला) तृन्, इष्णु, स्नु, क्नु, ष्णक, घिनुण्, णक प्रत्यय शीलादि में तीन अर्थ हैं-१. शील (स्वभाव) २. धर्म (कुल आदि आचार) । ३. साधु (अच्छा) । तृन्, इष्णु आदि उपरोक्त सारे प्रत्यय शील आदि अर्थों में कर्ता में होते हैं। इन प्रत्ययों के रूप कर्ता या कर्ता के विशेषण के रूप में प्रयोग में आते हैं। विवक्षा से कर्म आदि अन्य कारकों में भी प्रयुक्त हो सकते हैं। नियम ६५२-(शीलधर्मसाधुषु तृन् ५।३।१३) शील, धर्म और साधु अर्थों में तृन् प्रत्यय होता है । कर्ता कटं (शील) । वधूमूढां मुण्डयितारः श्राविष्ठानां (धर्म) । मुण्डनादि तेषां कुलधर्मः । गन्ता ग्रामम् (साधु) । साधु गच्छति इत्यर्थः नियम ६५३-(भ्राज्यलंकृन्निराकृन् भूसहिरुचिवृतिवृधिचरिप्रजनापत्रप इष्णुः ५।३।१४) भ्राज्, अलंकृन्, निराकृन्, भू, सह, रुच्, वृत्, वृध्, चर्, प्रजन्, अपत्रप् धातुओं से इष्णु प्रत्यय होता है। भ्राजिष्णुना लोहितचंदनेन । अलंकरिष्णुः । निराकरिष्णुः, भविष्णुः, सहिष्णुः, रोचिष्णुः, वर्तिष्णुः, वधिष्णुः, चरिष्णुः, प्रजनिष्णुः, अपत्रपिष्णुः । नियम ६५४-(उदः पचिपतिपदिमदिभ्य: ५।३।१५) उत् पूर्वक पच्, पत्, पद् और मद् धातु से इष्णु प्रत्यय होता है। उत्पचिष्णुः।
SR No.032395
Book TitleVakya Rachna Bodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya, Shreechand Muni, Vimal Kuni
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year1990
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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