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________________ ४६ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख बहुत सम्भव है कि कवि निर्मलदास ने पूर्वोक्त प्राकृत-पंचक्खाण का ही हिन्दी-पद्यानुवाद किया हो ? उसकी खोज आवश्यक है, क्योंकि उसकी उपलब्धि से जैन कथा-साहित्य के इतिहास पर कुछ नया प्रकाश पड़ने की सम्भावना है। सम्राट शाहजहाँ की २४ हजार प्रिय पाण्डुलिपियाँ कुछ फारसी पाण्डुलिपियों के अनुसार सम्राट शाहजहाँ के राजमहल में २५ टन सोने के बर्तन, ५० टन चाँदी के बर्तन, ५३ करोड़ रूपयों का अकेला तख्ते-ताऊस तथा अरबों-अरब के हीरा-जवाहिरात थे किन्तु ये सब उसके लिये उतने महत्वपूर्ण न थे जितनी महत्वपूर्ण थी उसके राजमहल में सुरक्षित लगभग २४ हजार हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ । आज वे कहाँ हैं, इसकी किसी को कोई जानकारी नहीं। यह भी जानकारी नहीं कि उनमें जैन-पाण्डुलिपियाँ कितनी थीं और वे कहाँ हैं ७२ ? जैन-पाण्डुलिपियों का प्राच्य फारसी-भाषा में अनुवाद जैन-साहित्य केवल संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, कन्नड़, तमिल आदि भारतीय भाषाओं में ही नहीं लिखा गया अथवा प्रमुख आधुनिक भारतीय भाषाओं में ही उसका अनुवाद नहीं किया गया है, बल्कि अपनी गुणवत्ता एवं सार्वजनीनता के कारण उसका प्राच्य विदेशी भाषाओं में भी अनुवाद किया गया है। प्राच्य भाषाविद् प्रो.हर्टेल ७३, डॉ. कालिदास नाग ७४ एवं डॉ.मोरिस विंटरनीज ७५ के अनुसार यह तो सर्वविदित ही है कि जैनदर्शन एवं जैन-कथाओं ने समस्त विश्व को आकर्षित एवं प्रभावित किया है। यहाँ मैं अपने शोधार्थियों तथा जिज्ञासु पाठकों के लिए फारसी में अनूदित एवं अन्य विरचित साहित्य की संक्षिप्त जानकारी दे रहा हूँ जो निम्न प्रकार है :फारसी अनुवाद ७६ : (१) आचार्य कुन्दकुन्द कृत पंचास्तिकाय (२) सि.च.नेमिचंद्र कृत गोम्मटसार-कर्मकाण्ड (अनुवादक-मुंशी दिलाराम, ___ समय अज्ञात) (३) जिनप्रभसूरिकृत फारसी में लिखित "ऋषभ-स्तोत्र" – (१४वीं सदी) ये तीनों पाण्डुलिपियाँ रूस के प्राच्य-शास्त्र-भण्डार में सुरक्षित हैं। प्रश्नोत्तररत्नमालिका (अम्गेघवर्ष कृत) के तिब्बती-अनुवाद की चर्चा मैं पीछे ही कर चुका हूँ। मुस्लिम बादशाहों द्वारा जैन-लेखकों का सम्मान जैनियों ने अपनी सत्यनिष्ठा, विश्वसनीयता, कर्मठता, व्यावहारिक सूझ-बूझ, वाणिज्य-कौशल, सार्वजनिक कार्यों के लिए दान में उदारता, लेखन-चातुर्य, तथा अपने ७२ नवनीत मासिक पत्रिका, (बम्बई) नवम्बर १६५५ पृ. ५३-५६ 73 The Jainas in the History of Indian Literature P. 10 ७४. अहिंसावाणी- जैन कथा विशेषांक ७५.The Jainas in the History of Indian Literature P.9 ७६. दे. Image of India (Moskow, USSR) 1984
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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