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________________ ४८ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख इधर, कुछ स्थानों में सूचीकरण के प्रसंगों में कुछ ऐसी पाण्डुलिपियाँ भी प्रकाश में आई हैं, जो शोधार्थियों के लिये नया-प्रकाश देने में समर्थ हैं। इनमें से एक पाण्डुलिपि है-श्रावक निर्मलदास कृत- "भाषा पंचाख्यान' ७०, जिसमें २००० पद्य हैं। उसकी आदि-प्रशस्ति में उसे पंचतंत्र तथा अन्त्य-प्रशस्ति में पंचाख्यान-भाषा कहा गया है और यह बतलाया गया है कि जो व्यक्ति इस पंचाख्यान-ग्रन्थ का अध्ययन करेगा, वह राजनीति में निपुण हो जायेगा। यथा सुनो सुनो श्रावक सकल नर, सहाय मिल भविक सब। तुम्हरे प्रसाद यह उच्चरों पंचतंत्र की कथा इव ।। (आदि-प्रशस्ति पद्य) पंचाख्यान कहें प्रकट ज्यों जाने नर कोय। राजनीति में निपुण हुवै पृथ्वीपति तो होय ।। (अन्त्य-प्रशस्ति का अंश) उक्त रचना का प्रतिलिपिकाल वि.सं. १७५४ (१६६७ ईस्वी) है। अतः श्रावक निर्मलदास का रचना-काल इसके पूर्व का सिद्ध होता है। ___ उक्त प्रशस्ति में उल्लिखित पंचतंत्र का अपरनाम पंचाख्यान का उल्लेख हमारा ध्यान जर्मनी के प्राच्यविद्याविद् प्रो.जॉन हर्टेल ७१ के उस कथन की ओर आकर्षित करता है, जो उन्होंने लगभग आठ-नौ दशक पूर्व पं. विष्णु शर्मा कृत पंचतंत्र का सम्पादन करते समय कहा था। उनके कथनानुसार “वर्तमान में उपलब्ध संस्कृत-पंचतंत्र के पूर्व किसी जैन-लेखक द्वारा लिखित "पंचक्खाण" नामक प्राकृत का जैन कथा-ग्रन्थ लोकप्रिय था। उनके अनुसार वर्तमान संस्कृत-पंचतंत्र उसी के आधार पर लिखित प्रतीत होता है। प्रो.हर्टेल द्वारा उल्लिखित प्राकृत-पंचक्खाण या तो नष्ट हो गया है या देश-विदेश के किसी प्राच्य शास्त्र-भण्डार के अंधेरे में पड़ा हुआ प्रकाशन की राह देख रहा संस्कृत-पंचतंत्र की लोकप्रियता भारत में ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि से विकसित संसार के प्रमुख देशों में रही। उत्तर-मध्यकाल में उसके राजस्थानी, गुजराती एवं हिन्दी-अनुवाद तो हुए ही, विदेशी भाषाओं यथा-अरबी, फारसी, इटालियन, फ्रेंच, जर्मनी, रूसी तथा अंग्रेजी में भी उसके अनुवाद प्रकाशित किए गए हैं। इससे यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि उसने विश्व कथा-साहित्य को भी प्रभावित किया होगा। जर्मनी में अनेक भारतीय पाण्डुलिपियाँ ले जाई गई हैं। जैसा कि पूर्व में कह चुका हूँ कि डॉ. वी.राघवन् के सर्वेक्षण के अनुसार विदेशों के विभिन्न ग्रन्थागारों में भारत की लगभग ५०००० पाण्डुलिपियाँ सुरक्षित हैं, जिनमें से अकेले बर्लिन में ही ३५००० भारतीय जैन एवं जैनेत्तर पाण्डुलिपियाँ सुरक्षित हैं और यह असम्भव नहीं कि उक्त प्राकृत-"पंचक्खाण भी बर्लिन में सुरक्षित हो और सम्भवतः प्रो.हर्टेल के दृष्टिपथ से भी वह गुजर चुका हो ? ७०. साहित्य-संदेश (आगरा, दिस.१६५६ पृ.२५२-२५३) में प्रकाशित श्री अगरचंद्र जी नाहटा के लेख के आधार पर साभार ७१. डॉ.जॉन हर्टेल द्वारा सम्पादित पंचतंत्र की भूमिका
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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