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________________ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख ४३ पड़े थे। आधुनिक इतिहासकार अनंगपाल तोमर के इस कीर्तिस्तम्भ से सम्बन्धित ऐतिहासिक घटना से प्रायः अनभिज्ञ जैसे हैं। (६) महाकवि रइधू ने अपभ्रंश, प्राकृत एवं हिन्दी के लगभग तीस-ग्रन्थों की रचना की है। उनकी आदि एवं अन्त की प्रशस्तियाँ ऐतिहासिक महत्व की हैं। उन्होंने ग्वालियर-शाखा के तोमरवंशी ७ राजाओं का परिचय तथा उनके बहुआयामी कार्य-कलापों का उल्लेख कर आधुनिक इतिहासकारों द्वारा विस्मृत तथा उपेक्षित उक्त गौरवशाली राजवंश के महत्व को मुखर किया है। रइधू के समकालीन गोपाचल (वर्तमान ग्वालियर) के तोमरवंशी राजा डूंगरसिंह तथा उनके पुत्र राजा कीर्तिसिंह वीर पराक्रमी नरेश थे। उन्होंने गोपाचल के उत्तर में सैयदवंश, दक्षिण के माँडों के सुल्तान, जौनपुर के शर्कियों एवं दिलावर खाँ गौरी तथा हुशंगशाह गोरी के छक्के छुड़ाकर गोपाचल को निरापद बनाया था ६४ | राजा डूंगरसिंह तोमर ने अपने को अजेय समझने वाले सुल्तान हुशंगशाह के हीरे-मोती एवं माणिक्यों का अमूल्य कोष भी छीन लिया था। यहाँ तक कि उसके पास सुरक्षित जगप्रसिद्ध "कोहिनूर हीरा (जो कि बाद में महारानी विक्टोरिया के राजमुकुट में जड़ा गया), उसे भी राजा डूंगरसिंह ने उससे छीन कर एक कीर्तिमान स्थापित किया था। दुर्भाग्य से आधुनिक इतिहास-ग्रन्थों में इस नरेश की चर्चा भी नहीं मिलती ६५। . (७) चौहान वंश केवल दिल्ली तक ही सीमित न था, बल्कि उसके कुछ वंशजों ने चन्द्रवाडपत्तन (वर्तमान चंदवार, फीरोजाबाद, आगरा) पर भी शासन किया था। यह चौहान-परम्परा, राजा भरतपाल से प्रारम्भ होती है तथा उसकी नौ पीढ़ियों में राजा रामचन्द्र तथा उसका पुत्र राजा रुद्रप्रतापसिंह चौहान (वि.सि. १४६८-१५१०) हुआ। महाकवि रइधू की ग्रन्थ-प्रशस्तियों के आधार पर इन चौहान-नरेशों का इतिहास तैयार किया जा सकता है। आधुनिक इतिहासकारों ने चन्द्रवाडपत्तन जनपद के इन चौहानवंशी नरेशों को विस्मृत कर दिया है ६६ | (८) रइधू-साहित्य की प्रशस्तियों के अनुसार १५वीं सदी में ग्वालियर-दुर्ग में जो अगणित जैन-मूर्तियों का निर्माण हुआ, वह महाकवि रइधू की प्रेरणा से उनके भक्त राजा डूंगरसिंह एवं उनके पुत्र राजा कीर्तिसिंह ने निर्मित कराई थीं। गोपाचल राज्य के राज्य-कोष की ओर से वहाँ लगभग ३३ वर्षों तक लगातार जैन-मूर्तियों का निर्माण कार्य चलता रहा था। इतनी अधिक जैन-मूर्तिर्यों का निर्माण कार्य देखकर रइधू को स्वयं ही उन्हें अगणित एवं असंख्य बतलाते हुए " गणण को सक्कई "(उनकी गणना कौन कर सकता है ?) कहना पड़ा था। ६४-६५. रइधू साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन. लेखक-प्रो.डॉ.राजाराम जैन (वैशाली, बिहार -१६७४) प्रथम सन्धि. ६६. वही.
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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