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________________ ४२ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख चक्री (चक्रवर्ती) पदधारी स्कन्धिल के राजा को १२ हजार मुड़े, अन्न भेंट-स्वरूप प्रदान किये। यही नहीं, जगडू ने सुदूरवर्ती इलाकों में ११२ दान-शालाएँ खुलवाईं, करोड़ों लज्जापिण्ड बाँटे। (दुष्काल के समय प्रतिष्ठित लोग लज्जावश किसी के सम्मुख जाकर भिक्षावृत्ति नहीं कर सकते थे, अतः उनकी और उनकी बहू-बेटियों की प्रतिष्ठा को बचाने के लिये बूंदी के बड़े-बड़े लड्डुओं में स्वर्ण-मुद्राएँ या स्वर्ण की जंजीरें या हीरे-मोती भरकर उन्हें लज्जापिण्ड कहकर उनके घर-घर जाकर उसने स्वयं ही वितरित किये।) इस प्रकार जगडू ने अपनी अर्जित सम्पत्ति में से अकाल पीड़ितों एवं दुखीजनों के लिये कुल ६६६००० मुडे अर्थात् ३ करोड ६६ लाख ६० हजार मन से अधिक अनाज तथा १८ करोड़ स्वर्ण-मुद्राएँ लज्जापिण्डों के रूप में वितरित कर आत्मसुख का अनुभव किया। जगडूचरित के अनुसार जगडू की लोकप्रियता का पता इसीसे चलता है कि उसकी मृत्यु का समाचार सुनते ही गुजरात का राजा अर्जुनदेव फूट-फूटकर रोने लगा, सिन्धु देश के राजा ने दो दिनों तक भोजन नहीं किया, दिल्ली के सुलतान ने शोक में अपना ताज उतार कर फेंक दिया और प्रजाजन तो बरसों तक उसका गुणगान करते-करते बिलखते रहे और कहते रहे-" आज के राजा बलि, राजा शिवि, राजा जीमूतवाहन, राजा विक्रम और राजा भोज हमारे बीच से सदा-सदा के लिए अन्तर्धान हो गये ६२। (५) १३ वीं सदी के हरयाणा-निवासी अपभ्रंश महाकवि विबुध श्रीधर ने अपने पासणाहचरिउ-महाकाव्य की प्रशस्ति में दिल्ली का आँखों देखा वर्णन किया है। उसमें उनके एक वाक्य-" जहिं गयण-मंडलालग्गु सालु " ने इतिहास की एक जटिल गुत्थी को सुलझा दिया । इतिहासकारों को यह पता नहीं लग रहा था कि दिल्ली के तोमरवंशी राजा अनंगपाल (१२वीं सदी का उत्तरार्ध) ने अपने दुर्जेय शत्रु राव हम्मीर पर विजय प्राप्त कर, उसकी स्मृति में ढिल्ली (दिल्ली) में जो एक विशाल कलापूर्ण कीर्तिस्तम्भ का निर्माण कराया था और जिसे विबुध श्रीधर ने "गयणमंडलालग्गु सालु" कहा था, वह आखिर कहाँ चला गया? उसकी अवस्थिति (Location) का पता नहीं लग रहा था। हुआ यह था कि कुतुबुद्दीन ऐबक (१३वीं सदी) ने क्रूरतापूर्वक उस कीर्तिस्तम्भ को ध्वस्त कर दिया था। इसी कुतुबुद्दीन ऐबक ने विबुध श्रीधर के आश्रयदाता महासार्थवाह नट्टल साहू द्वारा कीर्तिस्तम्भ के समीप में निर्मित विशाल आदिनाथ-मन्दिर ६३ तथा मानस्तम्भ को भी ध्वस्त कर उनकी अधिकांश सामग्री कुतुबमीनार के निर्माण में लगवा दी थी, जिसके साक्ष्य सन् १९८७ में उस समय मिले, जब विद्युत्पात के कारण कुतुबमीनार का एक अंश ढह गया था और उसमें से कुछ जैन-मूर्तियाँ तथा मन्दिर के स्तम्भ आदि निकल ६२. "नवनीत" (बम्बई) फरवरी १६५५ के लेख के आधार पर साभार ६३. विशेष के लिए देखिए भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित विबुध श्रीधरकृत (तथा प्रो. डॉ. राजाराम जैन द्वारा सम्पादित) वड्ढमाणचरिउ की भूमिका
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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