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________________ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख नुतसौन्दर्यमुमूर्जिता शियमुं तन्नल्लि निन्दिदर्दुवं, क्षिति सम्पूज्यमो गोम्मटेश्वर जिनश्री रुपमात्मोपमं ।। अर्थात् कोई भी मूर्ति जब आकार में बहुत ऊँची एवं विशाल होती है, तब उसमें सौन्दर्य का प्रायः अभाव रहता है। यदि वह विशाल भी हुई और उसमें सौन्दर्य भी हो, तो भी उसमें दैवी-चमत्कार उत्पन्न करना कठिन है। लेकिन गोन्मटेश की इस मूर्ति में उक्त तीनों का समन्वय हो जाने से उसकी छटा चमत्कारपूर्ण, अलौकिक, अभूतपूर्व एवं वर्णनातीत हो गई है। ___ चामुण्डराय ने अपने जीवन में राष्ट्रहित एवं समाजहित में जहाँ ८४ युद्ध करके उनमें शानदार विजय प्राप्त की थी, वहीं उसने अवकाश के क्षणों में चामुण्डराय-पुराण जैसी अमूल्य कृति का प्रणयन कन्नड़-भाषा में तथा चारित्रसार (आचारसार) नामक ग्रन्थ का प्रणयन संस्कृत में कर अपने जीवन की सार्थकता सिद्ध की है। होयसल-नरेश विष्णुवर्धन के ८ सेनापति थे और वे भी सभी जैन थे। यथा-गंगराज, बोच्च, पुण्णित, बलदेव, मेरियन, भरत, ऐच, और विष्णु। ये सभी पराक्रमी तो थे ही, जैन संस्कृति के आपादमस्तक संरक्षक भी। अन्य पराक्रमी सेनापतियों में सेनापति हुल्ल, सेनापति देवराज, सेनापति शान्तियण्ण, सेनापति ईश्वर चमूपति, रेचिमय्य, सेनापति एचिरल तथा सेनापति अमृत के नाम भी अविस्मरणीय हैं। कर्नाटक के शिलालेखों में इन सभी के विस्तृत प्रेरक परिचय उपलब्ध हैं ४१ | गंग-वंश और उसके संस्थापक आचार्य सिंहनन्दि ___ श्रवणवेलगोल के शिलालेख सं. ५६ के अनुसार उत्तर-भारत के इक्ष्वाकुवंशी दडिग एवं माधव नामके दो राजकुमार दक्षिण भारत की यात्रा पर निकले और पेरूर नामक ग्राम के एक सरोवर-तट पर स्थित चैत्यालय में उनकी भेंट मूलसंघी, कुन्दकुन्दान्वयी काणूरगण के मेषपाषाण गच्छ के आचार्य सिंहनन्दि से हुई। दोनों ही दोनों की तेजस्विता से प्रभावित हुए। इस सम्मिलन से प्रमुदित होकर पद्मावती देवी ने प्रकट होकर उन राजकुमारों को तलवार एवं राज्य प्रदान किया। सिंहनन्दि ने उन दोनों को प्रशासन करने की शिक्षा प्रदान की। वहीं पर एक पाषाण-स्तम्भ साम्राज्य की देवी के मुख्य प्रवेशद्वार में प्रवेश के लिये बाधक बना हुआ था। सिंहनन्दि के आदेश से राजकुमार माधव ने उसे ध्वस्त कर डाला । अतः सिंहनन्दि ने उसे एक राज्य का शासक घोषित कर दिया ४२ | उक्त शिलालेख के अनुसार ही जब वे राजकुमार प्रभावक शासक बन गये, तब सिंहनन्दि ने उन्हें इस प्रकार की शिक्षाएँ प्रदान की (१) यदि तुम अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण न करोगे अथवा जिन-शासन की सहायता न करोगे, (२) परस्त्रियों का अपहरण करोगे या कराओगे, ४१. जैन शिलालेख संग्रह (माणिक. दि. जैन ग्रंथमाला) तृतीय भाग ४२. इस संदर्भ सूचना के लिये मैं आचार्य श्री विद्यानन्द जी का आभारी हूँ।
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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