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________________ 30 जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख पामव्वे, पम्पादेवी आदि को पराक्रमी, राष्ट्रवादी एवं जिनवाणी-भक्त बनाने तथा सामाजिक सुधारों में उन्हें अग्रणी बनाने में कर्नाटक की पुण्यभागा तीर्थरूपा भूमि तो है ही, परोक्ष रूप में सम्राट खारवेल द्वारा स्थापित उसकी दूर-दृष्टि सम्पन्न सांस्कृतिक चेतना की प्रभावक वेगवती प्रच्छन्न प्रवाहित धारा ही प्रतीत होती है। आदिपम्प (६४७ ई.) सम्भवतः ऐसा प्रथम कन्नड़ जैन कवि था, जिसने कन्नड़ के आदिपुराण नामक महाकाव्य में लिखा है कि-"भरत ने अयोध्या में सम्राट पद ग्रहण किया। हिमवत-पर्वत से लवण सागर पर्यन्त षट्खण्ड भूमण्डल उसका शासन मानता था। उसके धर्म-प्रेम की कीर्ति दिग्दिगन्त में व्याप्त थी। प्रजा भी राजा की भाँति धर्म में अनुरक्त थी। वृषभ-पुत्र भरत इस देश का प्रथम चक्रवर्ती सम्राट हुआ। इसीलिए उसके नाम पर आज भी यह देश "भारत" कहलाता है।" ____ अन्य पाण्डुलिपियों की प्रशस्तियों में भी इसी प्रकार के अनेकविध ऐतिहासिक प्रसंग उपलब्ध होते हैं। जैन इतिहास के विशेषज्ञ विद्वान् श्री नरसिंहाचार्य ने अपने कर्नाटक-कविचरिते में कर्नाटक के कन्नड़ कवियों की गणना करते हुए बताया है कि कन्नड़-भाषा के २८० कवियों में से सबसे अधिक संख्या जैन-कवियों की ६५ है, उसके बाद लिंगायत-कवियों की संख्या ६० है, ब्राह्मण-कवियों की संख्या केवल ४५ तथा अवशिष्ट ५० में अन्य फुटकर कवि आते हैं ४० । कर्नाटक के जैन सेनापति __कर्नाटक के शिलालेखों में यह देखकर आश्चर्यचकित होकर रह जाना पड़ता है कि परमसात्विक अनेक श्रावक, एक ओर तो राष्ट्रभक्त, वीर-पराक्रमी सेनापति हैं, तो दूसरी ओर वही सेनापति, जैन-संस्कृति के संरक्षक, जैन-मन्दिरों के उद्धारक एवं मूर्त्ति-निर्माता होने के साथ-साथ उच्चकोटि के ग्रन्थकार भी हैं। गंग-नरेश मारसिंह के सेनापति तथा मुनि अजितसेन के शिष्य और सि. च. आचार्य नेमिचन्द्र के स्नेहभाजन रहने वाले समर-धुरन्धर वीरवर चामुण्डराय (६७८ ई.) के बहुआयामी व्यक्तित्व को कौन नहीं जानता, जिसने विश्व को आश्चर्यचकित कर देने वाली गोम्मटेश्वर की उत्तुंग-काय कलापूर्ण ५७ फीट ऊँची मूर्ति का निर्माण करवाया और उसके सौन्दर्य को देखकर महाकवि वोप्पण की गर्वीली लेखनी भी उसके वर्णन के लिये स्तम्भित जैसी हो गई थी तथा विवश होकर उसे लिखना पड़ा था कि मेरे पास तो केवल टूटे-फूटे असमर्थ अथवा विकलांग शब्द मात्र ही हैं, फिर भी मैं यह कहने के लिये बाध्य हूँ कि अतितुंगाकृतियादोडागदद रोल्सौनदर्य मौन्नत्यमुं नुतसौन्दर्यनुभागे मत्त तिशयंतानागदोन्नत्यमु । ४०. कर्नाटककविचरिते पृ.६०
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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