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________________ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख . १६ तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर स्पष्ट है कि तिरुवल्लुवर कृत "कुरल-काव्य" और व्याकरण ग्रन्थ "तोलकप्पियम्' जैसे तमिल के गौरवग्रन्थों पर जैनधर्म का पूर्ण प्रभाव है। इस कारण इतिहासज्ञ विद्वानों की यह मान्यता है कि वैदिक अथवा ब्राह्मणधर्म के प्रभाव के पदार्पण के पूर्व ही तमिल-प्रान्त में जैनधर्म का प्रवेश हो चुका था। कुछ विद्वानों की यह भी मान्यता है कि तमिल के शास्त्रीय कोटि के महाकाव्यों में से एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ "नालडियार'' में उन आठ सहस्र जैनमुनियों की रचनाएँ ग्रथित हैं, जो पाण्ड्य-नरेश की इच्छा के विरुद्ध पाण्ड्य-देश छोड़कर अन्यत्र विहार करने जा रहे थे। यह संग्रह-ग्रन्थ तत्कालीन पाण्ड्य-देश में लिखा गया था। कलिंग के जैन चक्रवर्ती सम्राट खारवेल ने अपने हाथीगुम्फा-शिलालेख में लिखा है कि-"मगध-नरेश नन्द ३०० वर्ष पूर्व कलिंग से जिस “कलिंग-जिन" को छीनकर मगध में ले गया था, उसे मैंने उससे वापिस लाकर कलिंग में पुनः स्थापित कर दिया है २४ ।" खारवेल का समय ई.पू. दूसरी सदी का मध्यकाल है। इस तथ्य का गहन अध्ययन कर डॉ.के.पी. जायसवाल ने लिखा है कि "कलिंग (वर्तमान उड़ीसा) में जैनधर्म का प्रवेश शिशुनाग वंशी राजा नन्दिवर्धन के समय में हो चुका था। खारवेल के समय के पूर्व भी उदयगिरि (कलिंग) पर्वत पर अरिहन्तों के मन्दिर निर्मित थे, क्योंकि उनका उल्लेख खारवेल के शिलालेख में हुआ है। इन तथ्यों से यह स्पष्ट विदित होता है कि खारवेल के पूर्व भी कई शताब्दियों तक जैनधर्म कलिंग का राष्ट्र-धर्म रहा था।" उनके इस कथन से प्रतीत होता है कि तीर्थंकरों की सिद्ध एवं अनेक तीर्थंकरों की जन्मभूमि-बिहार से यह जैनधर्म बंगाल, कलिंग, आन्ध्र, तमिल एवं केरल होता हुआ सिंहल देश तक पहुँचा होगा। जैसा कि पूर्व में लिखा जा चुका है-पूर्व में इतिहास-लेखन की परम्परा न थी, इस कारण साक्ष्यों के अभाव में यह ज्ञात न हो सका कि सुदूर-दक्षिण में उसका प्रचार-प्रसार करने में आचार्य भद्रबाहु से भी पूर्व किन-किन मुनि-आचार्यों का योगदान रहा होगा ? आचार्य भद्रबाहु को इसकी जानकारी अवश्य रही होगी। यही कारण है कि मगध के द्वादशवर्षीय भीषण दुष्काल के समय उन्होंने ससंघ दक्षिण भारत की यात्रा ही उपयुक्त समझी। जैसा कि पूर्व में लिखा जा चुका है, कि उनकी इस यात्रा में उनके जाने का मार्ग कहाँ-कहाँ से रहा होगा तथा कितने महीनों में उन्होंने इस यात्रा को तय किया होगा, दुर्भाग्य से इसकी जानकारी अभी तक नहीं मिल सकी है। महाकवि कालिदास के विरही-यक्ष ने जिस मेघ को अपना दूत बनाकर अपनी विरहिणी यक्षिणी की खोज के लिए भेजा था, उसके जाने के आकाश-मार्ग तक का पता विद्वानों ने लगा लिया, किन्तु यह एक दुःखद-प्रसंग है कि आचार्य भद्रबाहु की दक्षिण-यात्रा के स्थल-मार्ग तक का प्रामाणिक पता विद्वान लोग अभी तक नहीं लगा सकें २४. खारवेल-शिलालेख पं. १२
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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